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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] महाराजा कुमारपाल [ ४०६ इस प्रकार प्रायः प्रतिदिन प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि का सैनिक स्कन्धावार में कुमारपाल के कक्ष में धर्मोपदेश हेतु एवं धर्म-चर्चा के निमित्त आवागमन होता रहा । एक दिन कुमारपाल भक्ति के प्रवाह में श्रद्धातिरेकवशात् आचार्यश्री के त्याग, तप एवं ज्ञान, विराग की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगा। यह प्रशंसा राज पुरोहित को प्राचार्यश्री के प्रति ईर्ष्या के वश सहन नहीं हुई और उसने कहा :-."राजन् ! जीवन भर केवल पानी और पत्तों से जीवन का निर्वाह करने वाले विश्वामित्र और पाराशर जैसे तपोपूत महर्षि भी स्त्री के मुख कमल को देखते ही मोहपाश में आबद्ध हो गए । तो जो साधु अथवा व्यक्ति घृत, दूध, दही जैसे गरिष्ठ पदार्थों के साथ शाल्यन्न आदि का सरस भोजन करते हैं, उन लोगों के ब्रह्मचारी रहने की बात तो समुद्र में किसी पर्वत के तैरने के समान ही असम्भव बात है ।" । कुमारपाल ने जिज्ञासापूर्ण दृष्टि से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि की ओर देखा। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि ने पुरोहित की व्यंगभरी उपरिलिखित बात के उत्तर में कहा-“शक्तिशाली केशरी सिंह मदोन्मत्त हाथियों के कपोलों को चीर कर उनके लहपान के साथ उनके मांस का और वन शूकरों के शक्तिप्रदायी रक्त-माँस का भोजन करता है। किन्तु वह वर्ष भर में केवल एक बार ही काम वासना का सेवन करता है। इसके विपरीत कंकर, ढेले आदि से अपने पेट को भरने वाला कबूतर दिन में अनेक बार प्रति दिन अपनी कामाग्नि के शमन हेतु विषय पंक में लिप्त रहता है। इससे यही सिद्ध होता है कि ब्रह्मचर्य केवल भोजन पर नहीं, किन्तु आत्मबल पर ही निर्भर करता है।" श्री हेमचन्द्राचार्य के इस युक्तिसंगत उत्तर को सुनकर राज पुरोहित निरुत्तर हो किंकर्तव्यविमूढ़ की भांति अवाक् अपनी कुक्षियों की ओर झांकता ही रह गया। । उसी समय जिन शासन के प्रति ईर्ष्या रखने वाले एक अन्य पंडितमानी ने कुमारपाल को सांजलि शीश झुकाते हुए कहा--"क्षमा करें नरदेव ! यह श्वेताम्बर मतावलम्बी सूर्य को भी नहीं मानते ।” हेमचन्द्राचार्य ने कुमारपाल को सम्बोधित करते हुए कहा--"राजन् ! हम तो सूर्य के अस्त हो जाने पर अन्न की बात तो दूर, जल की एक बूंद तक भी अपने मुंह में नहीं डालते । इसके विपरीत मेरे मित्र, जो इस प्रकार की बात आपके समक्ष कह रहे हैं, वे सूर्य के प्रस्त हो जाने पर रात्रि में सरस अशन-पानादि का नितप्रति रसास्वादन करते ही रहते हैं। न्यायप्रिय नरेश्वर! आप ही न्यायपूर्ण निर्णय दीजिये कि सूर्य के अस्त हो जाने पर उसके संकटकाल में अशन-पानादि का पूर्णतः परिहार करने वाले हम लोग ही वस्तुतः सूर्य का समादर करने वाले हैं, न कि ये लोग, यह अकाट्य प्रत्यक्ष प्रमाण से स्वतः सिद्ध है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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