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________________ ४०८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ संलेखनापूर्वक संथारा किया। उस अवसर पर प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने एक करोड़ नमस्कार मन्त्र का जाप किया। महत्तरा पाहिनी ने पूर्ण समाधिपूर्वक स्वर्गारोहण किया। पत्तन के श्रावक वर्ग और प्रजाजनों ने महत्तरा पाहिनी के पार्थिव शरीर की अन्त्येष्टि क्रिया का बड़े ठाट-बाट के साथ महोत्सव किया। जिस समय उनके शव को लिये वैकुण्ठी श्मशान भूमि के पास पहुंची तो वहां के कतिपय ईर्ष्यालु तापसों ने शववाहिनी उस वैकुण्ठी को तोड़ने का विफल प्रयास किया। अन्त्येष्टि के समय उपस्थित विशाल जनसमुद्र के समक्ष उन तापसों का बस नहीं चला और निर्विघ्न रूप से महत्तरा पाहिनी के पार्थिव शरीर का अन्तिम संस्कार समीचीन रूप से हो गया। इस प्रकार के प्रसंग पर तापसों के ईर्ष्यापूर्ण व्यवहार से हेमचन्द्रसूरि के हृदय को ठेस पहुंची और उन्होंने पत्तन से मालवभूमि की ओर.विहार कर दिया। विहार क्रम से वे मार्ग में आये हुए ग्रामों एवं नगरों में वीतराग प्रभु महावीर का विश्वकल्याणकारी संदेश भव्यों को सुनाते हुए, अनेक भव्यों को सत्पथ पर आरूढ और अनेक श्रद्धालुओं को अध्यात्मपथ पर अग्रसर करते हुए गुर्जरेश्वर महाराज कुमारपाल के स्कन्धावार में पहुंचे। मन्त्रीश्वर उदयन से आचार्यश्री के शुभागमन की सूचना प्राप्त होते ही कुमारपाल उनकी सेवा में उपस्थित हुअा। उसने बड़ी कृतज्ञता प्रकट करते हुए प्राचार्यश्री को वन्दन-नमन करने के अनन्तर बहुमान-सम्मानपूर्वक स्कन्धावारस्थ उदयन के कक्ष से उन्हें वह अपने निजी कक्ष में ले गया। राज्यारोहण के तत्काल पश्चात् ही कुमारपाल अनेक प्रकार के आन्तरिक कुचक्रों एवं युद्धों में उलझा हुअा रहा था, इसी कारण कुमारपाल अन्यत्र विहार कर रहे आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि की सेवा में उपस्थित नहीं हो सका था । गुर्जर राज्य के राज सिंहासन पर आरूढ़ होने के पश्चात् कुमारपाल के लिये प्राचार्यश्री के दर्शनों का यह प्रथमावसर ही था । उसने कृतज्ञता और हर्षातिरेक से अवरुद्ध अपने कण्ठस्वर में प्राचार्यश्री को उनकी भविष्यवाणी का स्मरण दिलाते हुए निवेदन किया :"भगवन् ! मैं जीवन भर आपका ऋणी रहूंगा। आप सदा इस दास पर कृपा कर ईश स्मरण की वेला में मेरे पास अवश्य पाया करें। आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने कुमारपाल से कहा :--"राजन् ! हम त्याग-विरागपूर्ण अध्यात्म पथ के पथिक भिक्षान्न से अपना निर्वाह कर और जीर्ण वस्त्र से अपने तन को ढक भूमि पर सोते हैं । इस प्रकार की स्थिति में हमें राजाओं के सम्पर्क से क्या प्रयोजन ?" कुमारपाल ने अति विनम्र स्वर में अभ्यर्थनापूर्वक प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि से निवेदन किया :"महाराज मैं अपने परलोक को सुधारने के लिये आप जैसे महापुरुषों के सत्संग का अभिलाषी हूं। आप किसी भी समय मेरे यहां पधार सकते हैं।" कुमारपाल ने तत्काल अपने अंगरक्षकों और प्रहरियों को आदेश दिया-"प्राचार्यश्री कृपा कर जब कभी किसी भी समय मेरे कक्ष में पधारने का कष्ट करें तो उन्हें बड़े सम्मान के साथ मेरे कक्ष में बिना किसी प्रकार की रोक-टोक के तत्काल लाया जाय ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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