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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] महाराजा कुमारपाल . [ ४०१ कुमारपाल की इस प्रकार की प्रतिज्ञा को सुनकर आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने कहा :- "क्षत्रियकुमार ! अन्ततोगत्वा नरक में गिराने वाले राज्य से हमारे जैसे विरक्त साधु-संन्यासियों को क्या प्रयोजन है ? हां, आप अपनी इस बात को सदा याद रखना और यथाशक्ति श्रमण भगवान् महावीर के शासन की सतत सेवा में निरत रहते हुए अपनी कृतज्ञता प्रकट करते रहना ।" . कुमारपाल ने प्राचार्यश्री के इस निर्देश को अटल आज्ञा समझकर शिरोधार्य किया और उन्हें नमस्कार करने के अनन्तर मन्त्री प्रवर उदयन के साथ उसके प्रासाद की ओर प्रस्थित हुआ । मन्त्रीश्वर उदयन ने. स्नान, पान, अशनादि से कुमारपाल का बहुमानपूर्वक सम्मान-सत्कार किया और उसे उसकी लक्ष्य विहीन यात्रा के लिये पर्याप्त पाथेय प्रदान कर विदा किया। उदयन से विदा ही कुमारपाल क्रमिक पद-यात्रा करता हुआ मालव प्रदेश में पहुंचा। वहां उसने कुडंगेश्वर के भव्य प्रासाद में शिला पर उटैंकित प्राचीन प्रशस्ति की निम्नलिखित गाथा को पढ़ा : पुन्ने वाससहस्से, सयम्मि वरिसाण नवनवइअहिए। होही कुमारनरिन्दो तुह विक्कमराय सारिच्छो ।। अर्थात् हे विक्रम महाराज ! आपके स्वर्गारोहण के अनन्तर एक हजार एक सौ निन्यानवे वर्ष व्यतीत हो जाने पर आपके समान ही प्रतापी कुमारपाल नाम का एक राजा होगा। ___ इस गाथा को पढ़कर कुमारपाल के आश्चर्य का पारावार नहीं रहा। विक्रम सम्वत् ११६६ का अवसान होने में एक मास से भी कम समय अवशिष्ट रह गया है । इस वर्ष के अवसान के साथ ही साथ मेरे राज्यारोहण काल विषयक इन दो भविष्यवाणियों को देखते हुए महाराज सिद्धराज जयसिंह का अवसान काल भी सन्निकट ही प्रतीत हो रहा है, यह विचार कर कुमारपाल ने कुडंगेश्वर से अपहिल्लपुर पट्टण की ओर प्रस्थान करने का दृढ़ निश्चय किया। अपनी मातृ पितृ भू गूर्जर भूमि की अोर द्रुतगति से प्रयाण कर पथ को पार करता हुआ कुमारपाल एक दिन रात्रि के समय अणहिल्लपुर पट्टण पहुंचा और अपने बहनोई (भगिनीपति) कान्हडदेव के भवन में पहुंचा। कान्हडदेव उस समय राजप्रासाद में थे। बहिन ने अपने भाई का बड़े दुलार से स्वागत किया और कहा- “महाराज सिद्धराज जयसिंह असाध्य रोगग्रस्त हो अचेतनावस्था में रुग्ण शय्या पर हैं। तुम्हारे जीजाजी को यहां लौटने में सम्भवतः विलम्ब हो सकता है। अतः तुम हाथ मुंह धोकर भोजन कर लो।" कुमारपाल ने कहा- “नहीं, मैं उनके आने पर ही भोजन करूगा।" उन्हें अधिक समय तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। कान्हडदेव राज प्रासाद से लौट आये। उन्होंने कुमारपाल को बड़े प्रेम के साथ भोजन कराया और कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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