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________________ ४०० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ __उस श्रेष्ठिकुल की महिला से उसके श्वसुर और पिता का नाम-धाम मालूम कर कुमारपाल बीस रजत मुद्राएं उस श्रेष्ठि कुलवधु के हाथ में रखकर बोला :"बहिन ! अपने भाई की यह अकिंचन भेंट ठुकराना मत ।" तदनन्तर कुमारपाल त्वरित गति से उस सघन वृक्ष की ओर बढ़ गया । कुमारपाल ने वृक्ष की छाया में बैठकर तीन दिन से प्रज्वलित हो रही अपनी पेट की ज्वाला को शान्त किया। पास ही बहती हुई नदी से जल पीकर वह दक्षिण दिशा की ओर बढ़ चला । इस प्रकार अनेक प्रान्तों में परिभ्रमण करता हुआ कुमारपाल स्तम्भ तीर्थ में सामन्त उदयन के पास पहुंचा, उस समय सामन्त उदयन पौषधशाला में प्राचार्यश्री हेमचन्द्राचार्य के पास बैठा हा था। कूमारपाल ने पौषधशाला में जाकर प्राचार्यश्री हेमचन्द्र को नमस्कार करने के अनन्तर उदयन का अभिवादन किया। उदयन कुमारपाल को देखते ही हर्ष-विभोर हो उठा और उसे अपने वक्षस्थल से लगा अपने पास बिठाया। तदनन्तर आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि को कुमारपाल का परिचय कराते हुए उदयन ने आचार्यश्री से प्रश्न किया :-"भगवन् ! इस शौर्यपुंज क्षत्रियकुमार की इस दुर्भाग्यपूर्ण दशा का अन्त कब होगा ?" प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने कुमारपाल के भाल एवं अन्य अंगों पर अंकित प्रशस्त लक्षणों को देखकर घनरव गम्भीर सुदृढ़ स्वर में कहा :-“सामन्तराज! यह युवक शीघ्र ही सार्वभौम राज राजेश्वर होने वाला है। यह सुनिश्चित है। इसकी प्रशस्त भाग्यरेखाओं को अब तो विधाता भी नहीं मिटा सकता।" दारिद्र्य की दुर्दशा में प्राकण्ठ मग्न कुमारपाल के साथ ही सामन्त उदयन को भी आचार्यश्री के इस भविष्य कथन पर एक बार तो विश्वास नहीं हुआ। दोनों को संदिग्धावस्था में देखकर हेमचन्द्रसूरि ने यह कहते हुए कि क्षत्रियकुमार के लिये यह कोई असम्भव बात नहीं है, दृढ़ स्वर में कहा :- "विक्रम सम्वत् ११६६ की कात्तिक कृष्णा द्वितीया, रविवार के दिन हस्त नक्षत्र में यदि कुमारपाल का राज्याभिषेक न हो जाय तो मैं उस दिन के पश्चात् इस निमित्त ज्ञान से सदा सर्वदा के लिये संन्यास ग्रहण कर लूंगा।" तदनन्तर प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने अपने इस भविष्य कथन को अपने हाथ से दो पत्रों पर लिखा । एक पत्र उन्होंने मन्त्री उदयन के हाथ में और दूसरा पत्र कुमारपाल के हाथ में रख दिया । इस चमत्कारपूर्ण भविष्य कथन को इस प्रकार के सुदृढ़ आत्म-विश्वास के साथ प्रकट करने के आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि के अद्भुत कला-कौशल को देखकर आश्चर्याभिभूत कुमारपाल ने निर्णयात्मक स्वर में कहा :-"भगवन् ! यदि आपका यह भविष्य कथन सत्य सिद्ध हुआ तो उसी दिन से उस समस्त राज्य के आप ही स्वामी होंगे। मैं तो आपके आज्ञाकारी अनुचर के रूप में सदा आपके प्रादेशों की अनुपालना को ही आजीवन अपना सौभाग्य समझता रहूंगा।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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