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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड- २ 1
महाराजा कुमारपाल
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वन में आगे की ओर बढ़ा। तीन दिन से उसे खाने को कुछ भी नहीं मिला था । भूख के कारण उसे एक डग भी आगे बढना दूभर हो गया था ।
उसी समय ससुराल से अपने पीहर की ओर पालकी में जा रही किसी अपार समृद्धिशाली श्रेष्ठिकुल की महिला की दृष्टि पूर्णरूपेण परिश्रान्त - क्लान्त एवं म्लानमुख कुमारपाल पर पड़ी । प्रथम दृष्टिनिपात से ही उस युवती ने ताड़ लिया कि वह कोई सम्भ्रान्त कुल का प्रदीप है और दुर्दिनों की चपेट में ग्रा भूखा-प्यासा वन में भटक रहा है। उसने अपनी पालकी रोक कर कुमारपाल से पूछा :" बन्धु ! तुम कौन हो ?"
अदीन घनरव गम्भीर स्वर में ईषत्स्मित के साथ कुमारपाल ने उत्तर दिया :-' - "बहिन ! इस समय तो मैं इससे अधिक कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हूं कि मैं एक लक्ष्यविहीन पथिक हूं।"
रमणी ने सहमे स्वर में प्रश्न किया :- " बन्धुवर ! ऐसा कौन-सा वृक्ष है, जिसे शीत, उष्ण आदि सब प्रकार के अनुकूल अथवा प्रतिकूल पवन के झौंकों ने नहीं झकझोरा हो ? पहले के दिन न रहे, तो ये दिन भी सदा रहने वाले नहीं हैं । क्या आप यथेच्छ समय तक हमारे यहां सुखपूर्वक प्रच्छन्न एकान्त अज्ञातवास करने की स्थिति में हैं ?"
कुमारपाल ने कृतज्ञतापूर्ण दृढ़ स्वर में कहा :- " बहिन ! तुम्हारे इस वात्सल्यपूर्ण उच्चकुलोचित सौहार्दभाव के लिए धन्यवाद ! किन्तु मैं किसी को अपने दुर्दिनों का साभी नहीं बनाऊंगा, विशेष कर तुम्हारे जैसे सुखी समृद्ध परिवार को । यह कह कर कुमारपाल ने आगे की ओर डग बढ़ाया । "
Era कुल की उस महिला ने कुमारपाल को रोकते हुए कहा :- "ठहरो भाई ! तुम्हारे स्वावलम्बनपरक साहस से तुम्हें शीघ्र ही अभीप्सित कार्य की सिद्धि प्राप्त होगी, किन्तु थोड़ा भोजन कर लो। देखो ! बहिन के आग्रह को टालना मत ।" यह कहते हुए उस ईभ्य महिला ने अपने पाथेय में से करम्ब का स्वादिष्ट पाथेय विपुल मात्रा में उस पथिक की ओर बढ़ाया । कुमारपाल उसके आग्रह को टाल न सका और उसने वह पाथेय रख लिया ।
कुमारपाल ने एक सघन वृक्ष की ओर डग बढ़ाये और उस इम्य पत्नी ने अपनी पालकी को अपने लक्ष्य की ओर बढ़ाने का अपने परिचारकों को आदेश दिया ।
जैसे कोई भूली-बिसरी बात स्मृति पटल पर आ उभरी हो । कुमारपाल सहसा उस महिला की पालकी के पास आया और उससे पूछा :- "आप किस श्रीमन्त की पुत्री और किस ईभ्य की कुलवधु हैं ?"
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