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________________ ३६६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ अन्तःपुर में बुला लिया और विधिपूर्वक उसे अपनी रानी बनाकर उसके साथ दाम्पत्यसुख का उपभोग करने लगे। कालान्तर में रानी चौला देवी गर्भवती हुई और समय पर उसने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। महाराज भीम ने अपने उस पुत्र का नाम हरिपाल रक्खा और राजकुमारों की भांति उसका लालन-पालन किया। युवा होने पर हरिपाल का विवाह एक राजकन्या के साथ किया गया। कालान्तर में हरिपाल को भी एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई और उसने अपने पुत्र का नाम भवनपाल रक्खा । भवनपाल का भी लालन-पालन संवर्द्धन, शिक्षण और दीक्षण राजपुत्रों की भांति किया गया। विवाह योग्य युवावय में भुवनपाल का विवाह भी क्षत्रिय राजकन्या के साथ कर दिया गया। राजसी वैभव एवं ठाट बाट के साथ दाम्पत्य सुख का उपभोग करते हुए भुवनपाल को भी एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई और उसका नाम कुमारपाल रक्खा गया। कुमारपाल बड़ा ही होनहार और दयालु प्रकृति का मिलनसार एवं प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का धनी था। उसका बाल्यकाल और किशोर काल राजकुमारों को ही भांति ऐश्वर्यपूर्ण सुखावस्था में व्यतीत हुआ। सभी लोग उससे बड़े प्रभावित थे और उसके अतिशालीन मृदु मंजुल स्वभाव के कारण राजप्रासाद के सभी लोग उससे सम्मान पूर्ण प्रेम करते थे। हठात् उसके सौभाग्य ने उल्टी करवट ली, जिसने उसे अति दुर्भाग्यपूर्ण दारुण दुःख के सागर में ढकेल दिया। एक दिन सामुद्रिक शास्त्र का एक लब्ध प्रतिष्ठ विशेषज्ञ सिद्धराज जयसिंह की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने चालुक्य राजवंश के कतिपय कुमारों के ललाट, हस्त एवं पदतलों के सामुद्रिक चिन्ह देखे । क्रमशः कुमारपाल की देहयष्टि पर अत्युत्तम सामुद्रिक चिन्हों को देखकर वह आश्चर्याभिभूत हो उठा। सिद्धराज जयसिंह को अपने मुख की ओर जिज्ञासापूर्ण दृष्टि से निहारते देख उस सामुद्रिक शास्त्रविद् ने कहा- “महाराज! इस किशोर के सामुद्रिक लक्षण ऐसे श्रेष्ठ हैं कि जिनके कारण आपके पश्चात् यही विशाल गुर्जर राज्य का अधिपति होगा।" उसने कुमारपाल के पादतल पर अंकित अनवच्छिन्न एवं सुस्पष्ट ऊर्ध्व रेखा की ओर इंगित करते हुए पुनः कहा-"मेरी यह सुनिश्चित मान्यता है कि यह रेखा कभी विफल नहीं हो सकती।" सामुद्रिक शास्त्र के विशेषज्ञ विद्वान् की बात सुनकर महाराज जयसिंह मन ही मन बड़े खिन्न हुए और उन्होंने उसी समय मन में यह दृढ़ संकल्प कर लिया कि परम्परागत पवित्र चालुक्य राजवंश को किसी भी दशा में वे अपवाद का भागी नहीं बनने देंगे । बस, उसी दिन से कुमारपाल के दुर्दिन प्रारम्भ हो गये। महाराज सिद्धराज जयसिंह ने मन ही मन यह विचार किया कि यदि यह कुमारपाल जीवित रहा तो अवश्यमेव इसकी भाग्य रेखा एक न एक दिन फलवती . हो सकती है, ऐसी स्थिति में 'नष्टे मूले कुतः शाखा' अथवा 'न रहेगा बांस न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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