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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] महाराजा कुमारपाल [ ३६७ बजेगी बांसुरी' की उक्तियों के अनुसार इसको येन केन उपायेन यमधाम को पहुंचा दिया जाय तो पवित्र चालुक्य राजवंश के भाल पर कालिमा की क्षीणतम रेखा भी नहीं उभर पावेगी। यह विचार कर महाराज जयसिंह कुमारपाल को मारने के अवसर की खोज में रहने लगे। अपनी सहजन्मा प्रत्युत्पन्नमति एवं दूरदर्शिता के कारण कुमारपाल को महाराज सिद्धराज जयसिंह के मनोभावों की थोड़ी सी झलक पड़ गई और वह सदा उनसे दूर रहने का प्रयास करने लगा। एक दिन जब उसे यह पूरी तरह से विश्वास हो गया कि महाराज सिद्धराज जयसिंह उसके प्राणों के प्यासे हैं तो कुमारपाल गुप्त रूप से एक तापस का वेष धारण कर पाटण से निकल पड़ा और सुदूरस्थ देश देशान्तरों में इधर-उधर घूमता रहा। इस प्रकार प्रच्छन्न वेष में कतिपय वर्षों तक विशाल भारत के विभिन्न स्थानों में भ्रमण करने के अनन्तर तापस वेष में ही वह पुनः पत्तन लौटा और एक मठ में अन्य संन्यासियों के साथ रहने लगा। श्राद्ध के दिनों में अपने स्वर्गीय पिता महाराज कर्ण के श्राद्ध के दिन सिद्धराज जयसिंह ने पाटण के ब्राह्मणों, साधुओं, सन्यासियों आदि को श्राद्ध भोजन के लिए निमन्त्रित किया। उन्हें यह शंका हो गई थी कि कुमारपाल सन्यासी के वेष में उन दिनों अणहिल्लपुर पट्टण में ही पाया हुआ है, अतः सिद्धराज जयसिंह ने श्राद्ध के दिन अपने यहां समागत सभी सन्यासियों के चरणों को अपने हाथ से धोना प्रारम्भ किया। साधु वेष में आये हुए कुमारपाल के पैरों का अपने दोनों हाथों की अंगुलियों से प्रक्षालन करते समय जब सिद्धराज जयसिंह को यह ज्ञात हुआ कि इस तपस्वी के पदतल में अतीव सुस्पष्ट लम्बी ऊर्ध्व रेखा है तो उन्होंने बड़े ध्यान से दृष्टि गडाकर उस तपस्वी की ऊर्ध्व रेखा को देखा और उन्हें विश्वास हो गया कि यही कुमारपाल है । कुमारपाल पहले से ही सशंक तो था ही, जब उसने सिद्धराज जयसिंह की इस प्रकार की चेष्टाओं को देखा तो उसे और विश्वास हो गया कि गुर्जरेश्वर ने उसे पहिचान लिया है और वह इस बार उसके प्राणों का अपहरण करके ही दम लेगा तो वह बड़ी चतुराई से सन्यासियों के पीछे अपने आपको छिपाता हुआ अपना वेष बदल कर तत्काल राज प्रासाद के पूर्व परिचित किसी गुप्त द्वार से निकल भागा। जब कुछ ही क्षण में सिद्धराज की प्रांखें उस साधु वेषधारी कुमारपाल को खोजने के लिये चारों ओर उठीं तो उस साधु को वहां कहीं न देख उसने तत्काल अपनी अंग-रक्षक सेना के नायक को आदेश दिया कि सभी दिशाओं में अपने सुभटों को भेजकर उस साधु को पकड़ कर उनके समक्ष उपस्थित करो। कुमारपाल नगर में त्वरित गति से आगे की ओर बढ़ता हुआ आलिग नाम के एक कुम्हार के घर में घुसा और वहां मिट्टी के भांडों को पकाने के लिये प्राव में कुम्हार के द्वारा रखे जा रहे भांडों के नीचे छिप गया। राजा के सुभट कुमारपाल का अनुसरण करते हुए कुम्हार के घर में घुसे । उन्होंने कुम्हार के घर अांगन आदि को घूम-घूम कर बड़े ध्यान से देखा किन्तु कहीं कुमारपाल को न देखकर उन्होंने कुम्हार से पूछा :--- “एक युवक राजमहलों से भाग निकला है, क्या तुमने उसे देखा है ?" दयालु कुम्हार ने बड़ी चतुराई से अज्ञात की भांति अपनी मुखमुद्रा बनाते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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