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परमार्हत महाराजा कुमारपाल
विक्रम की बारहवीं शताब्दी के अन्तिम दशक के समाप्त होने के केवल एक वर्ष पूर्व से लेकर विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के प्रथम तीन दशकों तक कुल मिलाकर ३१ वर्ष तक विशाल गुर्जर राज्य के राज सिंहासन पर महाराजा कुमारपाल आसीन रहकर न्याय नीतिपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करते हुए जिनशासन के अभ्युदय और उत्कर्ष के अनेक कार्यों में निरत रहे ।
अपने शासन काल में गुर्जराधीश महाराजा कुमारपाल द्वारा किये गये जिनशासन के अभ्युदयोत्थानकारी महत्त्वपूर्ण कार्यों को दृष्टिगत रखते हुए जैन जगत् में उन्हें परमार्हत के विरुद से अभिहित किया जाता रहा है और भविष्य में भी शताब्दियों तक इसी विरुद के साथ जैन इतिहास में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता रहेगा।
कुमारपाल का राज्यारोहण से पूर्वकाल का जीवन बड़ा ही दुखःपूर्ण एवं संघर्षमय रहा । उसको अपने प्राणों की रक्षा के लिये प्रच्छन्न वेष में दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी। अनेक बार उसके समक्ष घोर प्राणसंकट उपस्थित हुए और उसे अपने प्राणों की रक्षा के लिये पलायन कर अनेक वर्षों तक सन्यासी के वेष में सुदूरस्थ प्रदेशों में भटकना पड़ा । "न भवति महिमा विना विपत्तेः", यह उक्ति परमार्हत महाराजा कुमारपाल पर अक्षरश: चरितार्थ होती है। कुमारपाल के इस प्रकार के संघर्षमय एवं संकटपूर्ण जीवन के पीछे एक बहुत बड़ा कौटुम्बिक कारण रहा है।
यों तो कुमारपाल की धमनियों में यशस्वी चालुक्य राजवंश का ही रक्त प्रवाहित हो रहा था, किन्तु उसके जन्म की एक विचित्र कथा के कारण इसके पूर्ववर्ती चालुक्यराज सिद्धराज जयसिंह ने यह एक प्रकार से दृढ़ संकल्प कर लिया था कि पवित्र चालुक्य राजवंश के राज सिंहासन पर उसके पश्चात् चालुक्य वंश का ऐसा उत्तराधिकारी प्रासीन हो, जिसके मातृ-पक्ष एवं पितृ पक्ष पूर्णतः विशुद्ध एवं निष्कलंक हों। किन्तु सिद्धराज जयसिंह की मान्यतानुसार कुमारपाल के मातृपक्ष में इस प्रकार की विशुद्धता एवं निष्कलंकता नहीं थी।
___अंचलगच्छीय पुरातन इतिहासविद् आचार्यश्री मेरुतुगसूरि ने अपनी विक्रम सम्वत् १३६१ की ऐतिहासिक कृति "प्रबन्ध चिन्तामणि" में परमाहत महाराजा
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