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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
सिद्धराज जयसिंह के विशाल साम्राज्य को उसके पीछे सम्भालने वाला कोई पुत्र नहीं हुआ । इस कारण उसका अन्तिम समय बड़ा शोकपूर्ण रहा। उसे afest से यह ज्ञात हो गया था कि उसकी मृत्यु के पश्चात् कुमारपाल विशाल गुर्जर राज्य का अधिपति होगा । इस कारण भी वह अपनी आयु के अन्तिम दिनों में चिन्तामग्न रहा । वस्तुतः वह यह नहीं चाहता था कि विशुद्ध चालुक्य राजवंश के राज सिंहासन पर हीनकुल का व्यक्ति उसका उत्तराधिकारी बन कर बैठे। सिद्धराज जयसिंह के दादा महाराज भीम ने अपने अणहिल्लपुर पट्टरण में चौला देवी नाम की एक वारांगना की यशोगाथाएं सुनीं कि वह अनेक दिव्य गुणों एवं अनुपम रूप लावण्य से सम्पन्न होते हुए भी ऐसी मर्यादा का पालन करती है कि ऊंचे से ऊंचे कुल की कुलवधुएं भी उसके गुणों की प्रशंसा करते नहीं श्रघाती । महाराजा भीम ने अपने विश्वस्त अनुचर के माध्यम से अपनी सवा लाख मूल्य की कटारी उसके पास अग्रिम राशि के रूप में परीक्षा हेतु भेजी । वह कटारी पण्यांगना चौला देवी के पास पहुँचाने के अनन्तर महाराजा भीम तत्काल ही मालवप्रदेश में विजयाभियान हेतु चला गया और दो वर्ष तक मालव प्रदेश में ही रुका रहा । चौला देवी ने वे दो वर्ष विशुद्ध शीलव्रत का पालन करते हुए ही बिताये। क्योंकि उसने सवा लाख मूल्य की महाराजा भीम की कटारी अग्रिम राशि के रूप में स्वीकार कर ली थी इसलिये उसने किसी पुरुष का मुँह तक नहीं देखा । मालव प्रदेश के सैनिक अभियान से लौटने के पश्चात् महाराजा भीम ने चौला देवी के शीलव्रत पालन की यशोगाथाएं अपने चरों के मुख से सुनीं। वह उसके इस गुरण पर मुग्ध हो गया और उसने तत्काल चौला देवी को राजकीय सम्मान के साथ बुलवा कर अपने अन्तःपुर में रख लिया । महाराजा भीम को अपनी रक्षिता (रखेल) चौला देवी से हरिपाल नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ । कालान्तर में चौला देवी के पुत्र उस हरिपाल से त्रिभुवनपाल का जन्म हुआ और उस त्रिभुवनपाल से कुमारपाल का । यही कारण था कि सिद्धराज जयसिंह इस भय से कि कहीं उसके मरणोपरान्त कुमारपाल चालुक्यवंश के पवित्र राज सिंहासन पर न बैठ जाय, कुमारपाल का प्राणान्त कर देने के लिये व्यग्र हो उठा ।
सिद्धराज जयसिंह के जीवन की यही एक ऐसी घटना थी कि जिसने उसके अन्तिम जीवन को विक्षुब्ध कर दिया था । शेष उसका जीवन बड़ा ही सम्मानास्पद एवं आदर्श रहा ।
सिद्धराज जयसिंह के ४६ वर्ष के शासनकाल में गुर्जर राज्य ने अभूतपूर्व वृद्धि एवं समृद्धि प्राप्त की । विक्रम सम्वत् १९६६ में विक्रम की बारहवीं शताब्दी के महान् शक्तिशाली गुर्जर नरेश ने इस लोक से परलोक के लिये प्रयाण किया ।
विशाल गुर्जर राज्य के अधिपति सिद्धराज जयसिंह के शासनकाल में आचार्यश्री देवसूरि, कलिकाल सर्वज्ञ के विरुद से विभूषित श्राचार्यश्री
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