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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] सिद्धराज जयसिंह
[ ३६१ वह हरे-भरे मैदानों में उस बैल को ले जाकर चराती, सरोवरों का स्वच्छ नीर पिलाती और रात-दिन पश्चात्ताप की अग्नि में जलती रहती। एक दिन मध्याह्न की चिलचिलाती धूप में वह उस बैल को गोचर भूमि में घास चराते-चराते सूर्य की प्रचण्ड किरणों से प्रतप्त हो एक वृक्ष की छाया में बैठकर विलाप करने लगी। अकस्मात् उसने गगन में किसी के वार्तालाप का शब्द सुना। उसने ज्योंही सिर ऊपर उठाया तो देखा कि विमान में भगवान् शंकर भवानी के साथ बैठे हुए हैं। भवानी उसके करुण विलाप का कारण पूछ रही है। शिव ने पार्वती को बीती हुई घटना का वृत्तान्त सुनाते हुए कहा :-"यदि यह स्त्री इसी वृक्ष की छाया में इस बैल को चराये तो यहां एक ऐसी वन्यौषधि है कि जिसके खाते ही यह बैल पुनः पुरुष के रूप में प्रकट हो जायगा।"
तदनन्तर तत्काल शिव और पार्वती विमान सहित तिरोहित हो गये। गौरीशंकर के इस संवाद को सुनकर वह वणिक् पत्नी उठी और एक काष्ठ खंड लेकर जहां-जहां उस वृक्ष की छाया उस समय थी उस भू-भाग पर उस डंडे से पृथ्वी पर रेखा खींच दी। इसके बाद उस रेखांकित भू-भाग में से वनस्पति घास, जड़ीबूंटी आदि उखाड़-उखाड़ कर उस बैल को खिलाने लगी। इस प्रकार बैल को घास खिलाते-खिलाते कोई ऐसी वनस्पति औषधि उस बैल के मुख में चली गई कि जिसे उसके मुख में रखते ही वह बैल पुनः पुरुष बन गया ।"
__ प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने सिद्धराज जयसिंह को सम्बोधित करते हुए कहा :- "राजन् ! जिस प्रकार उस अज्ञात औषधि ने अभीसिप्त कार्य की सिद्धि कर दी उसी प्रकार कलियुग में व्यामोह के कारण जो पात्रता का परिज्ञान नष्ट हो गया है, वस्तुतः सभी दर्शनों की भक्तिपूर्वक आराधना करने से वह अज्ञात पात्र परिज्ञान शिवसुख प्रदायी हो सकता है । अतः हे राजन् ! आप जैसे न्यायप्रिय राजा के लिये सभी दर्शनों के प्रति सम्मान प्रकट करना ही श्रेष्ठ है।" प्राचार्यश्री हेमचन्द्र के इस उत्तर से सिद्धराज जयसिंह बड़ा सन्तुष्ट हुआ और उसी दिन से उसने समभाव से सभी दर्शनों के प्रति सम्मानपूर्ण व्यवहार करना प्रारम्भ कर दिया।
इस प्रकार सिद्धराज जयसिंह ने अपने राज्यकाल में स्वयं शैव धर्मावलम्बी होते हुए भी सभी धर्मावलम्बियों के साथ समान रूप से सम्मानास्पद व्यवहार किया। इसके राज्यकाल में गुर्जर राज्य की समृद्धि उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। मालव जैसे समृद्ध और सम्पन्न राज्य को गुर्जर सत्ता के अधीन कर उसने न्याय नीतिपूर्वक प्रजा का पालन किया। वह अपने सभी सैनिक अभियानों में सदैव सफल रहा । इस कारण अथवा तीन वर्ष की वय में ही बाललीला करते समय स्वयमेव राजसिंहासन पर सहज भाव से प्रारूढ़ हो गया, इसी कारण गुर्जरेश्वर महाराजा जयसिंह को लोक द्वारा सिद्धराज के विरुद से विभूषित किया गया। इसी कारण आज भी इतिहास के पृष्ठों में गुर्जरेश जयसिंह को सिद्धराज जयसिंह के नाम से अभिहित किया जाता है ।
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