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________________ [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग-४ आचार्यश्री हेमचन्द्र ने दृढ़ आत्मविश्वास से प्रोत-प्रोत घनरव गम्भीर स्वर में कहा - "यदि महाराज सिद्धराज जयसिंह की सहायता प्राप्त हो जाय तो मैं स्वल्प समय में ही इस प्रकार की सर्वांग पूर्ण व्याकरण की रचना कर विद्याप्रेमियों के हितार्थ विद्ववर्ग के समक्ष प्रस्तुत कर सकता हूं।" ३८८ ] सिद्धराज जयसिंह ने विद्वन्मण्डली के समक्ष प्राचार्य श्री से कहा :"पूज्यवर ! मैं इस कार्य में मेरी ओर से जितनी सहायता अपेक्षित की जा सकती है, उसे पूरा करने का पूरी तरह प्रयास करूंगा ।" तदनन्तर महाराज जयसिंह ने श्री हेमचन्द्रसूरि को ससम्मान विदा किया । नगर प्रवेश का शुभ मुहूर्त्त प्राने पर शुभ दिन शुभ घड़ी में महाराज जयसिंह के ठाट-बाट पूर्वक नगर प्रवेश के लिये गज, रथ, अश्व आदि वाहन सुसज्जित कर प्रस्तुत किये गये । गुर्जर राज्य की चतुरंगिणी विशाल सेना भी सुसन्नद्ध हो गुर्जरेश के आगे पीछे और दोनों पार्श्व में रह कर प्रयारण के लिये समुद्यत हुई । उसी समय सिद्धराज जयसिंह ने अपने मन्त्रियों के समक्ष ही मालवराज यशोवर्मा के हाथ में अपनी नग्न कटार ( दो धार वाली छुरी) देते हुए घोषणा की कि एक ही हाथी पर मैं आगे बैठूंगा और मेरे पृष्ठ भाग पर हाथ में नंगी छुरी लिये मालवराज यशोवर्मा बैठेंगे । इसी मुद्रा में मैं नगर प्रवेश करूंगा । यह सुनते ही मुंजाल मन्त्री ने दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए कहा : "मास्म संधि विजानन्तु, मास्म जानन्तु विग्रहम् । ख्यातं यदि श्रृण्वन्ति, भूपास्तेनैव पंडिता ॥ " अर्थात् भूपतिंगरण सन्धि और विग्रह की नीति को जान लें अथवा न जान लें, किन्तु पुरातन प्राख्यानों को, राजनैतिक श्राख्यानों को यदि ध्यान से सुन लें तो वे राजनीति के पारदृश्वा पण्डित हो जाते हैं । राजन् ! नीति शास्त्र में निष्णात होते हुए भी आपने अपनी ही मति के अनुसार जो यह निर्णय किया है वह वस्तुतः न प्रापके हित में है और न प्रजाहित में ही । " —— इस पर महाराज जयसिंह ने कहा - " मन्त्रिवर ? मैं कहे हुए अपने वचन से पीछे हटने की अपेक्षा प्राणों के परित्याग को श्रेष्ठ समझता हूं।" अपने स्वामी की इस बात को सुनकर मुंजाल ने काष्ठ से बनी और श्वेत रंग से रंगी हुई जयसिंह द्वारा दी गई छुरी के स्थान पर मालवराज Jain Education International प्रत्युत्पन्न मति महामन्त्री म्यान रहित छुरी महाराज यशोवर्मा के हाथ में दे दी । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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