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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] सिद्धराज जयसिंह [ ३८७ भूमि कामगवि स्वगोमयरसैरासिंच रत्नाकरा मुक्तास्वस्तिकमातनुध्वमुडुप त्वं पूर्णकुम्भी भव । धृत्वा कल्पतरोर्दलानि सरलैदिग्वारणास्तोरणा न्याधत्त स्वकरैर्विजित्य जगतीं नन्वेति सिद्धाधिपः ।। अर्थात् मनोभिलसित सर्व कामनाओं को तत्काल पूर्ण करने वाली हे मातकामधेनु ! तुम अपने पवित्र गोबर से समस्त पृथ्वी को लीप-पोत कर स्वच्छअच्छ कर दो। उत्तमोत्तम रत्नराशियों के निधान हे सागरों ! कामधेनु के गोबर से लिपि-पुती इस पृथ्वी पर आप सब मिल कर अपने श्रेष्ठतम महाध्य मुक्ताफलों से अति विशाल अतिसुन्दर स्वस्तिक का निर्माण कर चौक को पूर दो, हे अमृतवर्षी चन्द्रदेव ! आप इस लिपि-पुती धरा पर स्वस्तिक के पास पूर्ण कुम्भकलश बन कर विराजमान हो जाओ और हे दन्ताल दिग्गजो ! आप आठों ही रजताभ श्वेतवर्ण वाले दिग्गज अपनी सूंडों से कल्पवृक्ष के कोमल-सुकोमल पत्रों से तोरणों का-वन्दनवारों का निर्माण कर उन्हें अपनी सूंडों में थामें इस धरातल को तोरणें से मंडित कर दो, देखिये “महाराज सिद्धराज जयसिंह समस्त पृथ्वीमण्डल पर अपनी विजय वैजयन्ती फहरा कर यहां अलका तुल्या अनहिल्लपुरपत्तन नाम्नी नगरी में पधार रहे हैं, उनके स्वागत की शुभ वेला आ गई है।" __आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि द्वारा सुनाये गये इस श्लोक के शब्दसौष्ठव, कवि की कल्पना की ऊंची उड़ान और चमत्कारपूर्ण वचन चातुरी को सुनकर वहां उपस्थित सभी सरस्वती उपासक, सभी सामन्त, सभी सभ्यवृन्द एवं श्रोतागण मन्त्रमुग्ध की भांति हर्षविभोर हो उठे। स्वयं सिद्धराज जयसिंह के कण्ठ से हर्षातिरेकवशात् हठात् साधुवाद के 'साधु-साधु-साधु' स्वरों के रूप में अान्तरिक उद्गार प्रस्फुटित हो उठे। आचार्यश्री हेमचन्द्र की इस महिमा को सह न सकने के कारण ईर्ष्याभिभूत एक दो सभासद बोल उठे-"महाराज इन जैनाचार्य ने हमारे व्याकरणशास्त्र के बल पर ही तो इस प्रकार की विद्वत्ता प्राप्त की है। कहां है जैनों के पास व्याकरण ?" सिद्धराज जयसिंह की जिज्ञासा भरी दृष्टि को अपनी ओर मुड़ी देख जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र ने कहा-“राजन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने अपनी शैशवावस्था में इन्द्र के समक्ष जिस व्याकरण को प्रकट कर उसकी व्याख्या की थी, उस व्याकरण को हम लोग पढ़ते हैं।" __ इस पर उन ईर्ष्यालु विद्वानों ने कहा- "राजराजेश्वर ! विद्वान् प्राचार्यश्री यह तो पौराणिक आख्यान की बात कह रहे हैं। इस पौराणिक कथा के अतिरिक्त अन्य किसी ने व्याकरण बनाया हो तो उसका नाम बताया जाय।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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