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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] .
सिद्धराज जयसिंह
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दी । अपनी माता को पाटन की ओर लौटने के लिये उद्यत देख कर जयसिंह ने माता के समक्ष उपस्थित हो निवेदन किया :-"अम्ब ! सोमनाथ के इतना पास आकर आप बिना सोमनाथ की पूजा किये ही क्यों लौटना चाहती हैं ?"
मयणल्ल देवी ने कहा :- "पुत्र ! इस कर को सदा सर्वदा के लिये समाप्त कर देने पर ही मैं सोमेश्वर की पूजा करूंगी और तभी मैं अन्न ग्रहण करूंगी, अन्यथा नहीं।"
अपनी माता की इस प्रकार की प्रतिज्ञा सुनकर जयसिंह ने उसी समय वहां के उच्चाधिकारियों को बुलवाया और उनसे उस कर के माध्यम से होने वाली प्राय के पत्रक को लेकर देखा । उस पत्र में ७२ लाख के प्राय के अंक को देखकर महाराजा जयसिंह ने तत्काल उस पत्र को फाड़कर अपनी माता के कल्याण के लिये हाथ में जल लेकर सोमनाथ की यात्रा पर लगने वाले बाहुलोड कर को सदा के लिये समाप्त करते हुए अपनी अंजलि का जल संकल्पपूर्वक पृथ्वी पर डाल दिया।
__ चालुक्यराज जयसिंह द्वारा की गई करमुक्ति की घोषणा से मयणलदेवी को अपार हर्ष हुअा । उसने सोमेश्वर के मन्दिर में जाकर सवा करोड़ मूल्य के स्वर्ण से सोमनाथ की पूजा की। पूजा के अवसर पर तुला पुरुषदान, गजदान आदि अनेक प्रकार के बड़े-बड़े दान दिये।
इस प्रकार के महार्घ्य दान देने से मयणल देवी के अन्तर मन में इस प्रकार का अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे जैसा महादान न तो कभी किसी ने पहले दिया है और न भविष्य में ही कोई इतना बड़ा दान देने वाला पृथ्वी पर होगा ही । इस प्रकार के गर्व से उन्मत्त हो वह प्रगाढ़ निद्रा में सो गई । मयणल देवी के इस गर्व को देखकर भगवान् सोमनाथ "तपस्वी का भेष धारण कर उसके समक्ष स्वप्न में उपस्थित हुए और उन्होंने उससे कहा" :
"यहीं इस मन्दिर की परिधि में एक दीन-हीन भिखारिन यात्रा के लिये प्राई हुई है । तुम प्रातःकाल उससे उसके द्वारा किये हुए सुकृत की, पुण्य की याचना करना ।"
यह कह कर तपस्वी वेषधारी भगवान् सोमनाथ अदृश्य हो गये। यह स्वप्न देखकर मयणलदेवी की निद्रा भंग हो गई और उसने तत्काल राजपुरुषों को आज्ञा दी कि वे उस भिखारिन को खोज कर लाएं। राजपुरुषों ने थोड़ी ही देर में उस भिखारिन को राजमाता के समक्ष उपस्थित किया । मयणलदेवी ने उस भिखारिन से उसके पुण्य की याचना की। भिखारिन ने राजमाता की बात सुनकर विनीत स्वर में कहा :
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