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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
इस घटना के पश्चात् महाराजा कर्ण मयरगल्ल देवी के साथ समुचित सद्व्यवहार करने लगा । गर्भ-काल पूर्ण होने पर मयणल्लदेवी ने पुत्र को जन्म दिया । पुत्र जन्म से महाराजा कर्ण के हर्ष का पारावार नहीं रहा और उसने अपने राजकुमार का नाम जयसिंह रखा । राजोचित वैभव से राजकुमार का लालन-पालन किया जाने लगा और वह राजकुमार ग्रपने समवयस्कों के साथ खेलने लगा । इस प्रकार राजकुमार क्रमशः तीन वर्ष का हो गया । समान वय के बालकों के साथ खेलता हुआ राजकुमार एक दिन राज सिंहासन पर प्रारूढ़ हो उस पर बैठ गया । राजा कर्ण ने देखा कि उसका पुत्र राज सिंहासन पर उसी मुद्रा और ठाट से बैठा है, जैसे कि एक अनुभवी राजा बैठता है । राजा कर्ण और उसके पास बैठे हुए मन्त्री, नैमित्तिक आदि आश्चर्यविभोर हो सिंहासन पर ग्रासीन जयसिंह की ओर एकटक देखने लगे । नैमित्तिकों ने प्रति विनम्र स्वर में राजा से निवेदन किया :- "राजराजेश्वर ! राज्याभिषेक का इस समय सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त्त है । इस प्रतीव श्रेष्ठ एवं शुभ मुहूर्त्त में यदि राजकुमार का राज्याभिषेक कर दिया जाय तो ग्रागे चलकर विशाल गुर्जर राज्य वर्तमान की अपेक्षा कई गुना बड़ा विशाल साम्राज्य बन जायगा ।" महाराजा कर्ण ने तत्काल राज्याभिषेक की तैयारी का आदेश दिया और तत्काल उसी शुभ मुहूर्त्त में जैसा कि पहले बताया गया है विक्रम सम्वत् १९५० की पौष कृष्ण तृतीया, शनिवार, श्रवण नक्षत्र, वृष लग्न में अपने राजकुमार जयसिंह का राज्याभिषेक कर दिया ।
तदनन्तर अनेक विद्यायों एवं राजनीति में निष्णात हो महाराजा जयसिंह ने गुर्जर राज्य की ग्रामूलचूल ग्रतीव समीचीन रूप से बड़ी सुन्दर राज्य व्यवस्था की । एक दिन मयरगल्ल देवी ने अपने पुत्र सिद्धराज को अपने जातिस्मरण ज्ञान से ज्ञात हुए पूर्व भव का वृत्तान्त सुनाया और कहा कि उसे शान्ति तभी मिलेगी जब कि सोमनाथ की यात्रा पर लगा हुआ कर पूरी तरह से उठा लिया जायगा । सिद्धराज ने अपनी माता की प्रान्तरिक अभिलापा की पूर्ति हेतु माता के साथ सोमनाथ की यात्रा करने का निश्चय किया । मयरगल्लदेवी ने सवा करोड़ मूल्य की स्वर्णमयी पूजा सामग्री लेकर अपने पुत्र के साथ सोमनाथ की यात्रा प्रारम्भ की। जब मल्ल देवी बाहुलोड नगर पहुंची तब उसने देखा कि अनेक यात्रियों को कर विभाग के अधिकारी यात्रा का कर देने के लिये बाध्य कर रहे हैं और वे यात्री अपनी निर्धनावस्था के काररण कर देने में अपनी ग्रसमर्थता प्रकट कर रहे हैं । यात्रियों की इस प्रकार की दयनीय दशा को देखकर मयगल्ल देवी बड़ी खिन्न हुई । उसने देखा कि यात्रियों के समूह कर न चुकाये जाने एवं राज्याधिकारियों द्वारा सोमनाथ के दर्शनों की अनुमति न मिलने के कारण हताश एवं खिन्न हो ग्रांखों से अश्रुधारा प्रवाहित करते हुए पुनः अपने-अपने ग्राम और नगरों की ओर लौट रहे हैं । यह देखकर तो मयरगल्ल देवी की ग्रांनों से डबडबा उठीं और उसने अपने परिजनों एवं परिचारकों को पुनः पाटन की ओर लौट जाने की ग्राजा
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