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________________ ३७६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ महाराजा अपनी-अपनी राजसभात्रों में बड़ी ही श्रद्धाभक्तिपूर्वक आपके व्याख्यानों का आयोजन किया करते थे । इन राजगच्छीय धर्मघोष आचार्य ने विक्रम सम्वत् १९८६ ( तदनुसार वीर निर्वारण सम्वत् १६५६ ) में 'धम्मक पद्द मो' और उसी वर्ष की मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी के दिन गृहिधर्म परिग्रह प्रमाण' नामक ग्रन्थों की रचना की । आपके नाम पर राजगच्छ की 'धर्मघोष शाखा' का प्रादुर्भाव हुआ जो कालान्तर में 'धर्मघोष गच्छ' के नाम से विख्यात हुआ । अपनी शाखा अथवा अपने गच्छ में किसी प्रकार का प्रचार शैथिल्य न पनपने पाए, इस दृष्टि से दूरदर्शी. प्राचार्य धर्मघोष ने १६ श्रावकों की एक समिति का गठन किया । प्राबू पर्वत पर बनी विमल वसति की प्रशस्ति में आचार्य धर्मघोष के सम्बन्ध में निम्नलिखित श्लोक उटंकित है : वादिचन्द्र गुरणचन्द्र विजेता, भूपतित्रय विबोधविधाता । धर्मसूरिरिति नाम पुरासीत्, विश्व विश्वविदितो मुनिराजः ||३६|| राजवंश परमार्हत महाराजा कुमारपाल के राजसिंहासन पर प्रांरूढ़ होते ही शाकंभरी के महाराजा ग्रर्णोराज ने चाहड आदि गुर्जर सामन्तों के भड़काने पर गुजरात राज्य पर आक्रमण कर दिया था । उस युद्ध में अर्णोराज पराजित हुआ । अर्णोराज की सुधा नाम की एक रानी की कुक्षि से उत्पन्न हुए अर्णोराज के ज्येष्ठ राजकुमार जगदेव ने राज्य के लालच में आकर विक्रम सम्वत् १२०७ तदनुसार वीर निर्वारण सम्वत् १६७७ में अपने पिता अर्णोराज की हत्या कर दी । अर्णोराज की रानी सुधवा मरुकोट्ट ( मारोठ) के जोहिया राजा की बहिन थी । Jain Education International 10:1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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