________________
३७४
। जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ का उद्बोधन दे अपने दोषों की आलोचना कर संलेखनापूर्वक संथारा किया। उन्होंने :
"खामेमि सम्वे जीवा सव्वे जीवा खमन्तु मे । मित्ति मे सव्व भूएसु वेरं मज्झं न केणइ ।।
इस गाथा का उच्चारण करते हुए संसार के प्राणिमात्र से क्षमायाचनापूर्वक उन्हें क्षमा किया और संसार के प्राणिमात्र के प्रति अपना मैत्री भाव प्रकट करते हुए आत्म-चिन्तन में लीन हो गये। अन्त में प्रात्म रमण में लीन आचार्यश्री हेमचन्द्र ने विक्रम सम्वत् १२२६ में ८४ वर्ष की आयु पूर्णकर समाधिपूर्वक स्वर्गारोहण किया।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org