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________________ ३७० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ हेमचन्द्र एवं निमित्तज्ञों ने पूर्व में ही भविष्यवाणी कर दी थी कि सिद्धराज जयसिंह के पश्चात् कुमारपाल विशाल गुर्जर राज्य के सिंहासन पर आसीन हो गुर्जर राज्य को और भी अधिक शक्तिशाली राज्य का रूप देगा। मन्त्रियों का इंगित पाते ही कुमारपाल धीर गम्भीर मुद्रा में शार्दूल के समान पराक्रम प्रकट करता हुआ आगे बढ़ा । अपने वस्त्रों को समुचित रीति से समेट कर सुदीर्घावधि से अभ्यस्त सम्राट की भांति सिंहासन पर आसीन हो गया। राज सिंहासन पर बैठते ही अपनी तलवार की मूठ को अपनी मुट्ठी में कस कर पकड़कर अपने क्रोड में शनैः शनैः डुलाने लगा। सभी सामन्तों ने समवेत स्वर में कहा-"हमारे गुर्जर राज्य के यही महाशक्तिशाली राजा होंगे।" ये अपने भुजबल से शत्रुओं का संहार कर गुर्जर राज्य की सीमाओं, प्रताप और कीत्ति को दिग्दिगन्त में प्रसृत करेंगे। तत्काल बड़े हर्षोल्लास और समारोह के साथ कुमारपाल का विशाल गुर्जर राज्य के राज सिंहासन पर राज्याभिषेक कर दिया गया। गुर्जर राज्य की बागडोर अपने हाथों में सम्भालते ही कुमारपाल ने आन्तरिक एवं बाह्य दोनों ही प्रकार के शत्रुओं का निग्रह किया और स्वल्प समय में ही उसने गुर्जर राज्य की सीमाएं चारों दिशाओं में दूर-दूर तक अभिवृद्ध कर दीं। राज सिंहासन पर आरूढ़ होने से पहले उस पर आये प्राण संकट की घड़ियों में प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने जिस प्रकार उसके प्राणों की रक्षा की, जिस प्रकार उसकी सहायता की और जिस प्रकार उसके उत्साह को बढ़ाया, उन सबके प्रति कुमारपाल जीवन भर आचार्यश्री हेमचन्द्र का आभारी एवं परमभक्त रहा। वह भलीभाँति जानता था कि यदि उसे आचार्यश्री हेमचन्द्र अपने उपाश्रय में ताडपत्रों के ढेर के नीचे कोठरी में नहीं छिपाते, तीन दिन के भूखे को यदि अपने श्रद्धालु श्रेष्ठि से पाथेय के रूप में द्रव्य नहीं दिलाते तो राज सिंहासन पर आरूढ़ होना तो दूर, प्राणों का धारण करना तक भी उसके लिये असम्भव हो जाता ।' हेमचन्द्राचार्य के इस उपकार से उऋण होने के लिये वह सदा उनकी सेवा में उपस्थित होता । उनके प्रत्येक आदेश को शिरोधार्य कर उसकी परिपालना में अपना अहोभाग्य समझता । तथा श्वेताम्बराचार्यों हेमसूरिया तदा, प्रदोषसमयेऽदशि कल्पद्रुमसमः श्रिया ।।४६१।। पाथेयं कृपया किं च न दद्यात् यद्यसौ प्रभुः । राज्यं कः प्राप्स्यदानन्दि भवत्संगमसुन्दरम् ।। ४६२।। --प्रभावक चरित्र, पृष्ठ ११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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