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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] हेमचन्द्रसूरि
[ ३६५ सभी धर्मों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार और भागवत् धर्म के मुनि देवबोध के प्रति प्राचार्यश्री हेमचन्द्र द्वारा प्रकट की गई अनुपम उदारता से चारों ओर हेमचन्द्रसूरि की अधिकाधिक यशोगाथाएं गाई जाने लगी और जिनशासन की महती प्रभावना हुई।
प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि की सर्वधर्मसमभाव नीति का एक और उदाहरण प्रभावक चरित्र में उपलब्ध होता है। भागवत् मुनि देवबोध को एक लाख मुद्राओं का दान करने के अनन्तर महाराज सिद्धराज जयसिंह ने तीर्थयात्रा के लिये प्रस्थान किया। अपने इस निश्चय के पूर्व ही महाराज जयसिंह ने हेमचन्द्रसूरि से प्रार्थना की कि तीर्थाटन में वे भी साथ-साथ पधारें । तीर्थयात्रार्थ प्रस्थान करते समय महाराज जयसिंह ने प्राचार्य हेमचन्द्र को प्रगाढ़ आग्रह के साथ अनुरोध किया कि वे एक पालकी में बैठकर तीर्थयात्रा में उनका साथ दें। किन्तु हेमचन्द्रसूरि ने मुनि के आचार के विरुद्ध चालुक्यराज द्वारा किये गये प्राग्रहपूर्ण अनुरोध को अस्वीकार करते हुए पदचार से ही विशाल भू-भाग की यात्रा की। पुत्राभाव के दुःख से प्रपीडित सिद्धराज जयसिंह ने आचार्यश्री हेमचन्द्र के साथ शत्रुञ्जय, रैवतकाचल, उज्जयन्त महातीर्थ आदि अनेक तीर्थों की यात्रा की । इन तीर्थों में महाराज जयसिंह ने सिंहासन-आसन आदि का कभी उपयोग नहीं किया, उसने इन जैन तीर्थों की यात्रा की अवधि में पृथ्वीतल को ही सदा अपना सिंहासन समझा । इन तीर्थों में चालुक्यराज जयसिंह ने पुण्यार्जन के लिये जिनमंदिरों को ग्रामदान, द्रव्यदान आदि अनेक प्रकार के विपुल दान दिये । उज्जयन्त तीर्थ पर भगवान् नेमिनाथ के बिम्ब को भक्तिपूर्वक वन्दन नमन करने के अनन्तर गुर्जरेश ने सदा के लिये वहां ये मर्यादाएं निर्धारित कर दी कि इस तीर्थ में कदापि कोई व्यक्ति मंच-पलंग आदि पर नहीं सोयेगा। स्त्रीसंग, सूतककर्म और दही का विलोडन वहां सदा के लिये निषिद्ध कर दिया गया । 'प्रभावक चरित्र' के उल्लेखानुसार इसके रचनाकार आचार्य प्रभाचन्द्र के समय तक सिद्धराज जयसिंह द्वारा स्थापित की गई इन मर्यादाओं का इस तीर्थ में पूर्ण रूप से पालन किया जाता रहा। उपरिलिखित जैन तीर्थों की यात्रा करने के अनन्तर सिद्धराज जयसिंह श्री हेमचन्द्रसूरि के साथ सोमेश्वर तीर्थ में भगवान् सोमेश्वर के मंदिर में गया। वहां हेमचन्द्रसूरि को परमात्मस्वरूप से परम संतोष हुआ। किसी का विरोध नहीं करना अर्थात् सर्वधर्मसमन्वय की नीति को अपनाना ही मुक्ति का परम साधन है, इस प्रकार विचार करते हुए प्राचार्य श्री हेमचन्द्र ने निम्नलिखित श्लोक के सस्वर पाठ के साथ भगवान् सोमेश्वर के लिंग को नमस्कार किया :--
यत्र तत्र समये यथा तथा, योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया ।
वीतदोषकलुषः स चेद् भवानेक एव भगवन्नमोऽस्तु ते ।।३४७।। १. सूरिश्च तुष्टुवे तत्र परमात्मवस्रूपतः ।
ननाम चाविरोधो हि, मुक्तेः परम कारणम् ।।३४६।।
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