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| जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
जो पुण्य और विद्या दोनों ही की दृष्टि से इनकी तुलना में ठहर सकता हो ।" इस प्रकार ऊहापोह में मग्न देवबोध को सम्बोधित करते हुए प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्रासन पर बैठने का आग्रह भरा इंगित करते हुए कहा :--"आज का दिन कितना पुण्यशाली दिन है कि आप जैसे कलानिधि ने घर बैठे मुझे दर्शन दिये हैं । यह कहते हुए आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने देवबोध का करावलम्बन करते हुए अपने प्रासन पर बिठाया।
। उस समय भागवत् मुनि देवबोध को ऐसा प्रतीत हुआ मानो साक्षात् सरस्वती मनुष्य का रूप धारण किये हुए प्राचार्यश्री हेमचन्द्र के रूप में उसके पास में विराजमान है । देवबोध ने हेमचन्द्रसूरि के प्रति हार्दिक कृतज्ञता अभिव्यक्त करते हुए श्रद्धा सुमन के रूप में निम्नलिखित श्लोक का सस्वर उच्चारण किया :
पातु वो हेम गोपालः, कम्बलं दण्डमुद्वहन् ।
षड्दर्शन पशुग्रामम्, चारयन्जैनगोचरे ॥३०४।। अर्थात् कन्धे पर कम्बल और हाथ में दण्ड धारण किये हुए, छहों दर्शनों के पशुनों के समूहों को (छहों दर्शनों के अनुयायियों को) जैनधर्म रूपी गोचर भूमि में चराता हुआ यह हेम गोपाल संसार के सब प्राणियों की रक्षा करे ।
इस श्लोक को सुनते ही प्राचार्यश्री हेमचन्द्र की सेवा में बैठे हुए सन्तवृन्द के साथ ही साथ उपासकों का विशाल समूह हर्षातिरेक से झूम उठा। देवबोध के इस कथन की काव्यमयी कल्पना और काव्य प्रतिभा पर उपस्थित जनसमूह के कण्ठ स्वरों से 'साधु साधु' स्वर हठात् ही गुजरित हो उठा । पारस्परिक कुशलक्षेम की पृच्छा के अनन्तर हेमचंद्रसूरि ने कविराज श्रीपाल को बुलाकर देवबोध और श्रीपाल के बीच कतिपय दिनों से चल रहे पारस्परिक मनोमालिन्य को दूर किया । तदनन्तर कविराज श्रीपाल को महाराज सिद्धराज जयसिंह के पास भेजकर राज्यकोप से देवबोध को एक लाख मुद्राएं प्रदान करवाई । अन्य दर्शन एवं उसके विद्वान के प्रति प्राचार्यश्री हेमचन्द्र के स्तति, सम्मान एवं अनुपम औदार्यभाव को देखकर देवबोध का एक प्रकार से कायापलट ही हो गया। उसने मन ही मन तत्क्षण मानव मात्र को रसातल को योर ले जाने वाली मद्यपी वृत्ति को सदा सर्वदा के लिये जलांजलि दे दी । प्राचार्यश्री हेमचन्द्र के प्रति अपने हाव-भाव एवं रोम-रोम से हादिक कृतज्ञता प्रकट करता हुया देवबोध राजकोप से प्राप्त हुई प्रचुर धनराशि को साथ ले अपने आश्रम की अोर लौट गया। उसने सब ऋणदाताओं का ऋण चुका कर पूर्वाचरित सभी प्रकार के निन्द्य आचार का जीवन भर के लिये पूर्ण रूपेण परित्याग कर दिया । प्रभु की साक्षी से विशुद्ध मुनि अाचार को अंगोकार कर गंगा के तट पर चला गया और वहां आध्यात्मिक साधना में निरत हो गया । यह आचार्यश्री हेमचंद्र की समन्वयवादी नीति और उत्कट उदारता का ही चमत्कार था कि एक पतित व्यक्ति पुनः पूज्य बन गया।
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