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________________ पूर्व पीठिका ] [ १९ तक व्यग्र हो उठती है, ठीक इसी प्रकार जिस समय तमिलनाडु में जैन श्रमरणों का संहार किया गया, जैनों का बलात् धर्मपरिवर्तन किया गया, उस समय यदि समग्र देश का, समग्र प्रान्तों का जैन समाज, जैन धर्म का प्रत्येक अनुयायी इस प्रकार के अमानुषिक अत्याचार के विरोध में या उसके प्रतिकार के लिये सुगठित होकर खड़ा हो जाता तो न तो इतना नर-संहार होता, न धर्म परिवर्तन, और न तमिलनाडु में जैन धर्मानुयायो नगण्य संख्या में हो जाते। किसी व्यक्ति के पैर में पीड़ा हो और उसके दूसरे अंग - हाथ, पैर, मस्तिष्क, वाणी, मन, मस्तक ग्रादि यही सोचते रहें कि पीड़ित है तो पैर है, हमें तो किसी प्रकार की पीड़ा नहीं है इसलिये हम पैर की चिन्ता क्यों करें, तो उस प्रकार की स्थिति में पैर की पीड़ा उत्तरोत्तर बढ़ती जायेगी और उस पैर के निर्बल अथवा अशक्त हो जाने पर सम्पूर्ण शरीर को, शरीर के अंग-प्रत्यंग को अनेक दुःख उठाने होंगे, कठिनाइयों की एक लम्बी कतार शरीर के अंग-प्रत्यंग के समक्ष खड़ी हो जायेगी । ठीक इसी प्रकार तमिलनाडु में पूर्व काल में प्रचण्ड रूप से प्रज्ज्वलित हुई धार्मिक विद्वेषाग्नि में जलते हुए जैनों की चिन्ता प्रान्ध्र, कर्नाटक आदि भारत के सभी प्रान्तों के जैनों ने नहीं की तो शंकराचार्य के धार्मिक अभियान, रामानुजाचार्य के वैष्णव अभियान और लिंगायतों के जैन विरोधी अभियानों का तांता सा लग गया, जिससे जैन संघ को भयंकर हानि उठानी पड़ी। जैनों की संख्या बड़े प्रबल वेग से क्षीण होते-होते पूर्वापेक्षया स्वल्पात् स्वल्पतर ही अवशिष्ट रह गई। समाज के एक अंग पर होने वाले प्राघात का शेष अंगों द्वारा प्रतिरोध न किये जाने का कटुतम प्रतिफल अाज भारत के सम्पूर्ण जैन समाज को भोगना पड़ रहा है। सामूहिक सशक्त प्रतिरोध के अथवा सामूहिक प्रात्मरक्षा के प्रयास का प्रतिफल अवश्यमेव सुखद एवं प्रभावी होता है। इस तथ्य पर भी इस ग्रन्थमाला के द्वितीय भाग में प्रकाश डाला गया है कि जिस समय अन्तिम मौर्य राजा वृहद्रथ की धोखे से हत्या कर उसका सेनापति पुष्यमित्र शुंग पाटलिपुत्र के राज सिंहासन पर आरूढ़ हो जैन धर्मावलम्बियों पर अत्याचार करने लगा उस समय कलिंगपति महामेघवाहन खारवेल भिक्खु राय ने पाटलिपुत्र पर अपनी प्रबल सेना के साथ आक्रमण कर दिया। कलिंगपति ने पुष्यमित्र शुंग को पराजित कर भविष्य में जैन संघ के साथ अच्छा व्यवहार करने की शिक्षा दी । भूतकाल में हुई इन दोनों प्रकार की घटनाओं से जैन संघ भविष्य में कुछ प्रेरणा ले, मार्ग-दर्शन ले इसी भावना से प्रस्तुत इतिहासमाला में अतीत की इन घटनाओं का यथातथ्यरूपेण वर्णन किया गया है। इस इतिहासमाला के प्रथम भाग के सम्पादकीय में यह स्पष्ट-रूपेण प्रकट कर दिया गया था कि जहां तक पुरातात्विक अवशेषों, शिला-लेखों पट्टावलियों, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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