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________________ १८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ यह हम तृतीय भाग में पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि द्रव्य परम्पराओं द्वारा समय-समय पर जो अनेक प्रकार के परिवर्तन, परिवर्द्धन, संशोधन, संघ की रीति-नीतियों के सम्बन्ध में किये गये, उनमें से बहुत से वस्तुतः तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में इसी पुनीत भावना के साथ किये गये थे कि उस प्रकार की संक्रान्तिकालीन घड़ियों में जैन धर्म संघ येन केन प्रकारेण अपने अस्तित्व को बनाये रख सके और इतर संघों की जनमनाकर्षक प्रवृत्तियां एवं रीति-नीतियां जैन धर्मानुयायियों को आत्मसात् करने के अपने दृढ़ संकल्प में सफलकाम न हो सकें। उन अशास्त्रीय मान्यताओं, जैन धर्म की मूल प्रात्मा, मूल भावना एवं मूलभूत सिद्धान्त के विपरीत विधि-विधानों एवं मान्यताओं के समय-समय पर प्रचलित किये जाने का जो विस्तृत व्यौरा इस भाग में प्रस्तुत किया गया है, उसके पीछे हमारी भावना किसी परम्परा के दोष बताने, उसको लोकदृष्टि में नीचा दिखाने अथवा इसके लिये उसकी भर्त्सना करने की किचित्मात्र भी नहीं रही है। हमारी मूल भावना तो केवल यही रही है कि उस प्रकार के संक्रान्तिकाल में तात्कालिक परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए जिन शास्त्रीय विधानों को किसी समूदाय अथवा सम्प्रदाय विशेष ने धार्मिक कर्तव्य अथवा विधेय के रूप में प्रचलित किया, उस प्रापवादिक हेर-फेर को धर्म के विशुद्ध स्वरूप के रूप में सम्मिलित नहीं कर लिया जाना चाहिये । यदि कोई विषैला जन्तु किसी व्यक्ति को डस जाय तो उस विष के निवारण के लिये समुचित औषधि देना अथवा विषापहारक मन्त्र का जाप करना परमावश्यक हो जाता है किन्तु विष का प्रभाव दूर हो जाने के पश्चात् भी यदि विषापहारक उपचार सदा सर्वदा के लिये प्रचलित रखने का आग्रह किया जाय तो उसे हठाग्रह के अतिरिक्त अन्य कोई संज्ञा नहीं दी जा सकती। बस, यही स्थिति संक्रान्तिकाल में प्रापवादिक रूप से संघ में प्रचलित की गई मान्यताओं के विषय में भी होनी चाहिये। तृतीय भाग में तिरुअप्पर और तिरुज्ञान सम्बन्धर द्वारा प्रचलित किये गये शव अभियान के समय जैनों पर जो भीषण अत्याचार किये गये, एक-एक ही दिन में आठ-पाठ हजार, पांच-पांच हजार, जैन साधुओं को मौत के घाट उतार दिये जाने के जो विस्तृत विवरण प्रस्तुत किये गये हैं, उनका एकमात्र पवित्र उद्देश्य यही है कि आज का जैन समाज और जैन संघ की भावी पीढ़ियां इस प्रकार के विवरणों से शिक्षा लें कि किसी भी विषम परिस्थिति में यदि जैन समाज पर किसी प्रकार के अत्याचारों का उपक्रम किया जाय तो उस प्रकार के प्रयास को निरस्त कर देने के लिये सम्पूर्ण जैन समाज को, प्रत्येक जैन संघ के सदस्य को सुसंगठित होकर दृढ़ संकल्प के साथ दीवार बनकर आततायी के सम्मुख खड़े हो जाना चाहिये । बिच्छू द्वारा डंक मारे जाने पर जिस प्रकार हमारे अंग-अंग में, रोम-रोम में नख से लेकर शिख तक एक तीव्र वेदना होती है, पूरा शरीर तड़प उठता है और उस वेदना से छुटकारा पाने के लिये उस व्यक्ति के हाथ, पैर, मन, मस्तिष्क, जिह्वा और रोमावलि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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