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________________ पूर्व पीठिका ] [ १७ डाला गया है । इस भाग में दिया गया राजवंशों का परिचय इस तथ्य को संसार के समक्ष रखता है कि प्राचीन काल में चोल, चेर, पांड्य, गंग, होय्सल, राष्ट्रकूट, चालुक्य, प्रादि अनेक राजवंशों ने न केवल जैनधर्म को राज्याश्रय ही दिया, अपितु अनेक राजाओं ने तो जैन धर्म के सिद्धान्तों को अपने जीवन में ढाला एवं कतिपय ऐसे राजाओं ने, जिनके शरीर रणक्षेत्र में लगे शस्त्राघातों के चिह्नों से नख शिख तक मण्डित थे, अपने जीवन के अन्त में एक-एक मास की संलेखना संथारा करके स्वेच्छया पंडित-मरण का वरण किया । अधिकांश राजाओं को जिनशासन की चोर आकर्षित करने में यापनीय परम्परा के साधु-साध्वियों एवं प्राचार्यों का एक श्लाघनीय योगदान रहा है । इस ग्रन्थ में जैन धर्म के ह्रास के प्रमुख कारणों पर सार रूप में स्पष्ट प्रकाश डाला गया है, जिससे जैनसंघ की अद्ययुगीन और भावी पीढ़ियां समुचित मार्ग-दर्शन एवं प्रेरणा प्राप्त कर भविष्य में कभी उन ह्रास के कारणों की पुनरावृत्ति न होने देने का दृढ़ संकल्प कर श्रमरण भगवान् महावीर के धर्म संघ की सर्वतोमुखी प्रगति के लिये कटिबद्ध हो सकें । इस भाग की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जैन इतिहास के शोधकों, लेखकों एवं विद्वान् मनीषियों ने केवल ये दो पंक्तियां ही लिखकर कि इस काल का इतिहास तिमिराच्छन्न है, विस्मृति के गहरे गह्वर में विलीन हो चुका है, जैन धर्म के वीर निर्वारण सम्वत् १००१ से वीर निर्वारण सम्वत् १७०० तक के ७०० वर्ष के इतिहास विवरण प्रस्तुत करने में अपनी असमर्थता प्रकट की थी । पर सौभाग्य से हमें इसे उपलब्ध करने-कराने में सफलता मिली । परिणामस्वरूप उस ७०० वर्ष के तिमिराच्छन्न जैन इतिहास के समय में से केवल ४७५ वर्ष के इतिहास के प्रलेखन में हमें १ हजार पृष्ठ भी कम पड़ गये । अतः शेष २२५ वर्ष के जैन धर्म के इतिहास को हमें चौथे भाग में स्थान देने का निर्णय लेना पड़ा । तीसरे भाग में उन सब ऐतिहासिक तथ्यों को खोज खोज कर प्रस्तुत किया गया है, जिससे यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि काल प्रभाव से श्रमण भगवान् महावीर के धर्मसंघ पर किस प्रकार संक्रान्ति के बादल मंडराये, इस धर्मसंघ में कब-कब, किस-किस प्रकार और किस तरह की विकृतियां उत्पन्न हुईं, किस प्रकार वे विकृतियां एकादशांगी के यथावत् विद्यमान होते हुए भी धर्म संघ में रूढ़ हो गईं, किस प्रकार प्रबल वेग से द्रव्य परम्परायों का प्रचार-प्रसार एवं सर्वतोव्यापी वर्चस्व उत्तरोत्तर बढ़ता गया और किस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर की विश्व कल्याणकारिणी शास्त्रीय विशुद्ध मूल परम्परा का ह्रास होते होते वह विलुप्त प्रायः दशा को प्राप्त हुई । इस तृतीय भाग में प्रस्तुत किये गये एतद् विषयक सभी तथ्य जैन धर्मसंघ के भावी कर्णधारों एवं भविष्य में आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रकाशस्तम्भवत् सत्पथ प्रदर्शित करने का कार्य करते रहेंगे, ऐसी हमारी धारणा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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