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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ की मांग को देखते हुए उन जैनेतर परम्पराओं द्वारा प्रचलित किये गये नवीनतम विधि विधानों से भी और अधिक आकर्षक विधि-विधान जैन संघ में प्रचलित किये । जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के लिये यापनीय प्राचार्यों ने न केवल कर्नाटक में ही अपितु तमिलनाडु में कन्याकुमारी तक बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों, विद्यापीठों एवं मठों आदि की स्थापनाएं की। इस परम्परा के कर्णधारों ने "स्त्रीणां तद्भवे मोक्षः" का घोष देकर दक्षिण में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। इस घोषणा से प्रभावित होकर कर्णाटक प्रदेश की महिलाओं ने जैन धर्म के अभ्युदय और उत्कर्ष के लिये जो-जो कार्य किये, उनके उल्लेखों से उटैंकित शिलालेखों का अम्बार सा कर्णाटक के विभिन्न स्थानों पर दृष्टिगोचर होता है ।
यापनीय संघ के प्राचार्य सिंहनन्दी ने गंग नामक एक राजवंश की कोल्हापुर में स्थापना कर शताब्यिों तक के लिये जैन-धर्म के प्रचार-प्रसार का मार्ग प्रशस्त कर दिया। गंग राजवंश ने लगभग नौ शताब्दियों तक जैन धर्म को राज्याश्रय देकर इसके प्रचार-प्रसार में सक्रिय योगदान किया। यापनीय परम्परा के प्राचार्य द्वारा संस्थापित गंग राजवंश की यह सबसे बड़ी विशेषता रही है कि इस राजवंश के
आदि पुरुष दड्गि और माधव से लेकर अट्ठाईसवें अन्तिम राजा गंग-रस सत्यवाक्य तक के प्रायः सभी राजा जैन धर्मावलम्बी हुए।
साउथ इण्डियन इन्स्क्रिप्शन्स, वाल्यूम संख्या ५.१ के लेख संख्या ३२४ और ३२६ से एक बड़ा ही आश्चर्यकारी तथ्य प्रकाश में आता है कि तिरुच्चारणत्तु कुरत्तिगल (साध्वी प्रमुखा) ने वरगुण नामक पांड्य राजवंश के पुरुष को अपने शिष्य के रूप में दीक्षित किया था। इसी वाल्यूम के लेख संख्या ३७० से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि तिरुमल्ले कुरत्ति नामक एक साध्वीगण की आचार्या के पास एक पुरुष श्रमण धर्म में दीक्षित हुआ था। अनुमान किया जाता है कि यह साध्वीगणों की सर्वेसर्वा प्राचार्याएं यापनीय संघ की ही हों क्योंकि श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के तो प्रारम्भ से लेकर आज तक के इतिहास में साध्वी को स्वतन्त्र रूप से प्राचार्य पद पर अधीष्ठित किये जाने की एक भी घटना दृष्टिगोचर नहीं होती । इसके अतिरिक्त चोलवंशीय महाराजा आदित्य प्रथम के शासनकाल में बेदाल से उपलब्ध ईसा की नवमीं शताब्दी के एक लेख से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि ईस्वी सन् ८५० के आसपास ६०० साध्वियां अकेले वेदाल में विद्यमान थीं और उसमें से ५०० साध्वियों की अधिनायिका प्राचार्या कुरुत्तियार (साध्वी प्रमुखा) कनकवीरा थी। वह भट्टारक गुणकीत्ति की अनुयायिनी और शिष्या थी। कोत्ति शब्द और नन्दि शब्द का प्रयोग प्रायः यापनीय संघ के प्राचार्यों एवं साधुओं के नाम के अन्त में प्रयुक्त होता आया है । इससे यह अनुमान किया जाता है कि तमिलभाषी प्रदेश में एक ही स्थान पर इतनी बड़ी संख्या में जो साध्वी समूह थे, वे सम्भवतः यापनीय संघ के ही हों। इस प्रकार यापनीय संघ के सम्बन्ध में अनेक अज्ञात ऐतिहासिक तथ्यों पर इस ग्रन्थ माला के तृतीय भाग में विशद् प्रकाश
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