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________________ ३६० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ राज्यसभा में अपनी कवित्व शक्ति से अनेक उच्च कोटि के कवियों को हतप्रभ कर दिया। पाटन की राज्य सभा में उस देवबोध ने गुर्जर राज्य के लोकप्रिय आशुकवि को निम्नलिखित श्लोक के पाठ के साथ सबके समक्ष हंसो का पात्र बना दिया। वह श्लोक इस प्रकार है : शुक्रः कवित्वमापन्नः, एकाक्षी विकलोऽपि सन् । चक्षुर्द्वयविहीनस्य, युक्ता ते कविराजता ।।२०८।। अर्थात् एक प्रांख से विकल होते हुए भी शुक्राचार्य कविताएं करता है। यह तो किसी प्रकार क्षम्य है किन्तु दोनों नेत्रों से जन्मान्ध होते हुए भी प्रो कवि शिरोमणि ! श्रीपाल ! तुम जो कविताओं की रचना करते हो क्या तुम्हारे लिये कविराजता उचित है ? पाटन का राज्यसभा भवन सभ्यों के अट्टहास से गुजरित हो उठा । श्रीपाल को उत्साहित करते हुए महाराज जयसिंह ने उन्हें अादेश दिया कि वे कठिन से कठिन विकट समस्याएं भागवत कवि के समक्ष प्रस्तुत करें। श्रीपाल कवि ने गुर्जरेश्वर की आज्ञा को शिरोधार्य कर अनेक प्रकार की जटिल से जटिल समस्याएं देवबोध के समक्ष रक्खीं। ग्राशु कवि देवबोध ने तत्काल उन सभी समस्याओं की पूत्ति कर महाराज सिद्धराज सहित सभी सभ्यों को चमत्कृत एवं आश्चर्याभिभूत कर दिया। प्रत्येक सभासद ने देवबोध की काव्य प्रतिभा की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। अपनी इस विजय के उन्माद में देवबोध ने महाराज सिद्धराज से निवेदन किया :-राजन् ! एक नितान्त निरक्षर भट्टाचार्य को राज्य सभा में उपस्थित करवाया जाय । फिर देखिये मां भारती का चमत्कार ! कुछ ही क्षणों में राजपुरुषों ने एक नितान्त मूढ़ एवं अनपढ़ व्यक्ति को सभा के समक्ष देवबोध के पास उपस्थित किया, जो कि भैंसों का चरवाहा था । भागवत विद्वान् देवबोध ने कुछ अस्फुट उच्चारण कर अपना हाथ भंसों के चरवाहे उस व्यक्ति के सिर पर रख दिया और कहा :- "सुनायो कोई अद्भुत् कविता !" भैंसों के चरवाहे ने तत्काल निम्नलिखित श्लोक का एक उद्भट विद्वान् की भांति शुद्ध एवं स्पष्ट रूप से उच्चारण कर सम्पूर्ण राज्यसभा को चमत्कृत एवं आश्चर्य के अथाह सागर में निमग्न कर दिया : तं नौमि यत्करस्पर्शात् व्यामोहम लिने हृदि । सद्यः सम्पद्यते गद्यपद्यबन्धविदग्धता ।।२३५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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