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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] हेमचन्द्रसूरि [ अर्थात् — मैं उस अलौकिक काव्य प्रतिभा के धनी को नमस्कार करता हूं जिसके करतल के स्पर्श मात्र से अथाह प्रज्ञानान्धकार के आगार मेरे हृदय में भी सहसा काव्य रचना की विलक्षण प्रतिभा उद्भूत हो उठी है । राज्य सभा के समस्त सदस्यों की प्राश्चर्य विभोर विस्फारित दृष्टि भारती देवी लब्ध प्रसाद महाकवि देवबोध के मुख मण्डल पर केन्द्रित हो गई । सिद्धराज जयसिंह की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा । उन्होंने तत्काल एक लाख मुद्राएं देवबोध को पारितोषिक के रूप में प्रदान कीं । ३६१ कवि समूह में सदा उच्च कोटि का सम्मान प्राप्त करने वाला प्रज्ञाचक्षु श्रीपाल कवि उस भागवत् कवि की काव्य प्रतिभा से प्रभावित तो हुआ किन्तु उसके द्वारा राज्य सभा के समक्ष किया गया अपमान उसके हृदय में शल्य की तरह चुभने लगा । उसने अपने विश्वस्त अनुचरों को उस अहंकारी कवि देवबोध के छिद्रान्वेषण के लिये नियुक्त किया । श्रीपाल को अपने कार्य में पूर्ण सफलता मिली । श्रीपाल के अनुचरों ने उसे सूचित किया कि रात्रि के समय पण्डित देवबोध मद्य पीकर उन्मत्त हो नदीतट पर मदोन्मत्तों की भांति प्रलाप करता हुआ अनेक प्रकार की हीन लीलाएं करता है । पूर्ण रूपेण आश्वस्त हो जाने के पश्चात् श्रीपाल ने सिद्धराज जयसिंह के समक्ष देवबोध के मद्यपी होने की बात रखकर और छद्मवेष में रात्रि के समय उन्हें नदी के तट पर ले जाकर चालुक्यराज को प्रत्यक्ष दिखा दिया कि देवबोध किस प्रकार प्रचुर मात्रा में मद्यपान कर उन्मत्त हो अपने अनुचरों के साथ अनर्गल प्रलाप करता हुआ अशोभनीय मुद्रा में नाच रहा है । सिद्धराज जयसिंह ने कंटीली झाड़ियों में छिपकर यह देखा । तो यह देखकर महाराज जयसिंह को उससे बड़ी घृणा हुई । वे मन ही मन सोचने लगे कि संसार कैसा विचित्र है कि इस प्रकार के विद्वान् और धर्म के कर्णधार भी अपनी मर्यादा को लांघकर इस प्रकार के निंद्य कर्म करते हैं । यदि इस समय मैं प्रकट होकर इसे कुछ भी नहीं कहता हूं तो प्रातःकाल यह अपने इस दुराचरण को कभी स्वीकार नहीं करेगा । जिस समय राजा इस प्रकार विचार कर रहा था उस समय रात्रि के घनान्धकार को दूर करता हुआ आकाश में चन्द्र प्रकट हुआ । प्रकाश के प्रकट होते ही देवबोध की उन्मत्तता और बढ़ी । उसने मद्यपात्र से पानपात्र में और मदिरा उंडेली और अपने अनुचरों से कहने लगा—“लो एक-एक प्याला और पीग्रो ।" यह कहते हुए उसने एक-एक पानपात्र सबको पिलाया और एक प्याला भरकर स्वयं ने भी पिया । तदनन्तर उसने अपने साथियों से कहा :- "अच्छा, अब और पीवें या अपने स्थान पर चलें ।” यह सुनकर अपने प्रकट होने का समुचित अवसर देख सिद्धराज झाड़ियों से निकला और देवबोध के समक्ष उपस्थित हो बोला :- " ऐसी स्वादिष्ट वस्तु से कौन मूर्ख अपना मुंह मोड़ेगा ? लाइये हमें भी हमारा भाग दीजिये ।” क्षण भर विचार करते ही जैसे उसकी प्ररणष्ट प्रतिभा लौट आई हो देवबोध ने कहा : – “अहो ! हमारा सौभाग्य है कि आपका यहां पदार्पण हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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