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जैन धर्म का मौलिक इतिहास---भाग ४
साथ-साथ अति विस्तीर्ण हैं और जीवन भर उन्हें पढ़ते रहने पर भी व्याकरण के गूढ़ रहस्यों का अधिकांश लोगों को बोध नहीं होता । इसीलिये विद्वद् समाज ने सर्व सम्मति से सिद्धहेम व्याकरण को परम प्रामाणिक रूप में मान्य किया। स्वयं सिद्धराज जयसिंह ने विद्वानों के साथ सिद्धहेम व्याकरण का सार्थ वाचन किया। इसके वाचन से महाराज सिद्धराज को अननुभूत प्रानन्द की अनुभूति हुई। उन्होंने तत्काल घोषणा की कि प्रतिवर्ष तीन लाख मुद्राएं (रौप्य मुद्राएं) सिद्ध हेम व्याकरण की प्रतियां लिखवाने के लिये राज्यकोष से व्यय की जाएं । सिद्ध हेम व्याकरण की प्रतियां लिखवाने के लिये विभिन्न नगरों एवं ग्रामों से तीन सौ प्रख्यात लेखकों (लिपिकों) को पाटन में बुलवा कर लेखनकार्य प्रारम्भ करवाया। सिद्धहेम व्याकरण की विपुल मात्रा में प्रतियां एक साथ तैयार हो जाने पर सर्वप्रथम सभी दर्शनों के धर्म गुरुओं को और तदनन्तर विद्यालयों के अध्यापकों को वे प्रतियां वितरित की गई । तदनन्तर सिद्धहेम व्याकरण की उपनिबन्ध सहित बीस प्रतियां महाराज जयसिंह ने काश्मीर भारती के मन्दिर में बड़े सम्मान के साथ भेंट की, जिन्हें भारती के ग्रन्थागार में रखा गया। तदनन्तर विशाल गुर्जर राज्य के सभी नगरों एवं ग्रामों में सिद्धहेम व्याकरण की प्रतियां विद्वानों एवं छात्रों को अध्ययनार्थ वितरित की गई, सिद्धहेम व्याकरण की प्रतियां जिन-जिन प्रदेशों, राज्यों एवं स्थानों को भेजी गईं, उनके सम्बन्ध में प्रभावक चरित्रकार ने निम्नलिखित रूप में विवरण प्रस्तुत किया है :
अंग बंग कलिगेषु, लाट कर्णाट कैंकणे । महाराष्ट्रसुराष्ट्रासु वत्से कच्छे च मालवे ।। ।।१०६।। सिंधू सौवीर नेपाले पारसीक मुरंडयोः । गंगापारे हरिद्वारे काशि चेदि गयासु च ।। ।।१०७।। कुरुक्षेत्रे कान्यकुब्जे गौड श्रीकामरूपयोः । सपादलक्षवज्जालंधरे च खसमध्यतः ।। ।।१०८।। सिंहलेऽथ महाबोधे चौड़े मालव कैशिके ।
इत्यादिविश्वदेशेषु शास्त्रं व्यस्तार्यत स्फुटम् ।। ।।१०।।
उन्हीं दिनों अणहिल्लपुर पट्टण में कायस्थ कुलोत्पन्न काकल नाम का एक विद्वान् रहता था । उसने आठों प्रकार के व्याकरणों का पारदर्शी अध्ययन किया था। व्याकरण शास्त्र में उसकी गति ऐसी तीव्र थी कि एक बार पढ़ने मात्र से ही उसके गूढ़तम रहस्यों से अवगत हो जाता । प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि के परामर्श से सिद्धराज जयसिंह ने काकल को सिद्धहेम व्याकरण के अध्यापनार्थ प्राध्यापक के रूप में नियुक्त किया। उसके पास अध्ययन के लिये स्थान-स्थान से बड़ी संख्या में व्याकरण के शिक्षार्थी आने लगे। प्रबन्ध चिन्तामरिण के उल्लेखानुसार महाराजा जयसिंह ने स्वशासित गुर्जर, मालव प्रादि अठारह प्रदेशों में इस प्रकार की राजाज्ञा
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