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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] हेमचन्द्रसूरि [ ३५३ सिद्धराज जयसिंह के अनुनयपूर्ण निवेदन को सुनकर हेमचन्द्रसूरि ने कहा :"राजन् जिस कार्य को निष्पन्न करने के लिये मैं अन्तर्मन से कृतसंकल्प हूं, आपने मुझे उस कार्य का स्मरण दिलाया है परन्तु इस कार्य में जो सबसे बड़ी कठिनाई है वह यह है कि आठ प्रकार के लोक विश्रुत व्याकरण हैं । व्याकरण विषयक ग्रन्थों के भण्डार काश्मीर प्रदेश में अवस्थित सरस्वती देवी के ग्रन्थागार में है। वहाँ से उन ग्रन्थों को यहां मंगवाये जाने पर उन सबके समीचीनतया पर्यालोचन के अनन्तर ही सर्वांगपूर्ण व्याकरण की रचना की जा सकती है।" सिद्धराज जयसिंह ने तत्काल अपने प्रधान पुरुषों को आदेश दिया कि वे काश्मीर में जाकर सरस्वती ग्रन्थागार से प्राचार्यश्री की इच्छानुसार सभी ग्रन्थों को लेकर लौटें। सिद्धराज जयसिंह की आज्ञा को शिरोधार्य कर प्रधान पुरुषों के समूह ने द्रुतगामी वाहनों से काश्मीर प्रदेश की अोर प्रस्थान किया। द्रुतगामी वाहनों से लम्बे मार्ग को पार करते हुए अन्ततोगत्वा वे प्रवरपुर पहुंचे । वहां उन्होंने देवी भारती की स्तुति की। भारती प्रसन्न हुई और उसने अपने अधिष्ठायकों को निर्देष देते हुए कहा :- "मेरे द्वारा वरप्राप्त श्वेताम्बर श्री हेमचन्द्र मेरे ही हैं और मेरे ही दूसरे स्वरूप हैं, उनकी इष्ट-सिद्धि के लिये उनके द्वारा अभीप्सित सभी ग्रन्थ रत्न इन लोगों को दे दो।" मां भारती की इस प्रकार की प्रसादपूर्ण वाणी सुनकर उसके सचिवों ने अथवा अधिष्ठायकों ने प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि द्वारा अभीप्सित सभी ग्रन्थ सिद्धराज जयसिंह द्वारा भेजे गये राजपुरुषों को दिये और उनका बड़ा आदर सत्कार किया। भारती के सचिवों द्वारा प्रदत्त ग्रन्थरत्नों को लेकर वे पाटनेश्वर के प्रधान पुरुष अणहिल्लपुर पट्टण लौटे । उन्होंने सिद्धराज जयसिंह को वे सभी ग्रन्थरत्न समर्पित करते हुए भारती मन्दिर का पूर्ण वृत्तान्त सुनाया कि देवी भारती स्वयं प्राचार्यश्री हेमचन्द्र पर परम प्रसन्न है और इन्हें देहान्तरधारी अपना स्वरूप ही समझती है । महाराज जयसिंह हेमचन्द्रसूरि पर देवी की अनन्य कृपा की बात सुनकर बड़े चमत्कृत हुए और उन्होंने अपनी राज सभा के सदस्यों के समक्ष अपना आन्तरिक आह्लाद प्रकट करते हुए कहा :-"धन्य है मेरा यह देश, जहां इस प्रकार के समर्थ महापुरुष हैं।" आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने भारती के ग्रन्थागार से आये ग्रन्थ-रत्नों को पूर्ण एकाग्रता और निष्ठा के साथ पढ़कर एवं उन पर चिन्तन मनन कर 'सिद्ध हेम व्याकरण' नामक व्याकरण के एक नवीन ग्रन्थ रत्न की रचना की। सूत्र वृत्ति तथा अनेकार्थ बोधिका नाममाला सहित इस ग्रन्थ रत्न को देख कर सभी विद्वानों ने हेमचन्द्रसूरि की मुक्तकण्ठ से भूरि-भूरी प्रशंसा की और सबने उस ग्रन्थ-रत्न का पूर्ण-रूपेण समादर किया। क्योंकि इससे पूर्ववर्ती सभी व्याकरण ग्रन्थों में अनेक स्थल संकीर्ण, अधिकांश स्थल दुर्बोध एवं कतिपय स्थान दोषों से परिपूर्ण होने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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