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________________ ३५२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग-४ कार्य करो। देख नहीं रहे ! महाराज सिद्धराज जयसिंह जगतीतल पर अपनी विजय वैजयन्ती फहराकर आ रहे हैं।" __ इस प्रकार के चमत्कारकारी अभिनव विधा के अलंकारपूर्ण अभिवादन को सुनकर सिद्धराज की राजसभा के सदस्य भावुकता के भावावेश में झूम उठे। सिद्धराज तो उस श्लोक को सुनकर हेमचन्द्रसूरि की सिद्ध सारस्वतता पर ऐसा अनुरक्त हुआ कि प्रति दिन, दिन में अनेक बार हेमचन्द्रसूरि का सत्संग करने लगा। . एक दिन पत्तन की राजसभा की विद्वन्मण्डली अवन्ति से आये हुए ग्रन्थरत्न सिद्धराज जयसिंह को दिखा रही थी। सिद्धराज जयसिंह ने एक ग्रन्थ पर 'भोज व्याकरण' लिखा हुआ देखकर विद्वानों से पूछा :- “यह क्या है ?" ____एक वयोवृद्ध विद्वान् ने कहा :- "राजन् ! यह मालवराज भोज द्वारा निर्मित व्याकरण है।" महाराज भोज स्वयं विद्वशिरोमणि थे। उन्होंने अलंकार, ज्योतिष, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद, राजनीति, वास्तुकला, अंकगणित, शकुनशास्त्र, स्वप्नशास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र एवं आध्यात्मिक विषय पर अनेक ग्रन्थों की रचनाएं की थीं। सिद्धराज जयसिंह ने विषादमिश्रित जिज्ञासापूर्ण स्वर में प्रश्न किया : "क्या हमारे गुर्जर राज्य के ग्रन्थागार में इस प्रकार के ग्रन्थ रत्न नहीं हैं ? क्या हमारे विशाल समृद्ध गुर्जर प्रदेश में इन सब विषयों के विशेषज्ञ उच्चकोटि के विद्वानों का अभाव है ?" इस प्रश्न को सुनकर किंकर्तव्यविमूढावस्था में मौन धारण किये सभी विद्वान् अपलक दृष्टि से विद्वद्वरेण्य आचार्यश्री हेमचन्द्र की ओर देखने लगे। सिद्धराज जयसिंह ने अपनी विद्वन्मण्डली के मौन से वास्तविकता को भांप लिया और तत्काल बड़ी भक्तिपूर्वक आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए उनसे प्रार्थना की :- "महर्षिन् ! आप भी एक उत्कृष्ट कोटि के व्याकरण शास्त्र का निर्माण कर मेरे मनोरथ को पूर्ण करने की कृपा कीजिये। मुझे दृढ़ विश्वास है कि आपके अतिरिक्त इस गुर्जर भूमि में अन्य कोई विद्वान् हमारे राज्य की इस खटकने वाली कमी को दूर करने में सक्षम नहीं है। आप ऐसे व्याकरण शास्त्र का निर्माण कीजिये जो व्याकरण के सभी श्रेष्ठ लक्षणों से सम्पन्न होने के साथ-साथ सरल, सुबोध और न केवल विद्वज्जनोपभोग्य ही अपितु जन-जन के लिये परमोपयोगी सिद्ध हो। इस प्रकार के व्याकरण के निर्माण से धरातल पर आपके साथसाथ मेरी भी यशोगाथाएं अमर हो जाएंगी और आप महान् पुण्य के भागी होंगे । मैं आपसे पुनः साग्रह अनुरोधपूर्वक प्रार्थना करता हूं कि आप एक अत्युत्तम नये व्याकरण की रचना कर मानवता की वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों को उपकृत करें।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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