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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] हेमचन्द्रसूरि [ ३५१ हाथी को बढ़ने से रोक दिया। इस प्रकार हाथी को रुकवा कर महाराज सिद्धराज जयसिंह कुछ क्षण तक हेमचन्द्रसूरि के समक्ष जिज्ञासापूर्ण मुद्रा में खड़ रहे और बोले- "कुछ कहिये।" सिद्ध-सारस्वत श्री हेमचन्द्रसूरि ने तत्क्षण निम्नलिखित श्लोक पढ़ा : "कारय प्रसरं सिद्ध !, हस्तिराजमशंकितम् । त्रस्यन्तु दिग्गजाः कि तेभूस्त्वयैवोद्ध ता यतः ।।६६।। अर्थात हे सिद्धराज जयसिंह ! आप अपने गजराज को निश्शंक होकर आगे बढ़ायो । दिग्गज भले ही आपसे त्रस्त होकर दशों दिशाओं में इधर-उधर भागें, दिग्गजों के दांतों पर अवस्थित यह वसुधरा तिलमात्र भी अपने स्थान से विचलित नहीं होगी। क्योंकि आपने इस धरित्री को अपने सशक्त वृषस्कन्धों पर धारण कर रखा है।" हेमचन्द्रसूरि के सम्बन्ध में जो जो सुन रखा था, उसे अक्षरश: सत्य पा कर सिद्धराज जयसिंह को पूर्ण संतोष हुआ और हेमचन्द्रसूरि के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धाभक्ति प्रकट करता हुआ बोला :-“वस्तुतः आप सिद्ध-सारस्वत हैं, साक्षात् मां सरस्वती आपके कण्ठों में सदा विराजमान रहती है। आप कृपा कर मध्याह्नकाल में प्रतिदिन मेरे यहां पधारा करें, मुझे असीम आनन्द की अनुभूति होगी।" उसी क्षण से सिद्धराज और सिद्ध-सारस्वत में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। इन दोनों का प्रायः प्रतिदिन ही मिलन होता रहा। गुर्जरेश सिद्धराज जयसिंह और अप्रतिम पाण्डित्य के धनी सिद्ध सारस्वत को यह मैत्री उत्तरोत्तर प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होती गई और उसी के परिणामस्वरूप गुर्जर भूमि के सुसंस्कारित नवनिर्माण का शुभारम्भ हुआ । मालव विजय के पश्चात् जैसा कि सिद्धराज जयसिंह के जीवन परिचय में उल्लेख किया जा चुका है, अन्यान्य दर्शनों के धर्माचार्यों ही की भांति प्राचार्यश्री हेमचन्द्र भी सिद्धराज जयसिंह को आशीर्वाद के रूप में अभिवादन करने गुर्जरेश के प्रासाद में सबसे अन्त में गये । उस समय आचार्य हेमचन्द्र ने जिन शब्दों में सिद्धराज का अभिवादन किया उसको सुनकर तो सिद्धराज सदा के लिये हेमचन्द्र सूरि का परम श्रद्धानिष्ठ प्रशंसक बन गया । जैसा कि पहले बताया जा चुका है, आचार्यश्री हेमचन्द्र ने सिद्धराज जयसिंह को मालव-विजय के उपलक्ष में अभिवादन करते हुए कहा :- "हे कामधेनु ! तुम अपने पवित्र गोबर से समस्त पृथ्वीतल को लीप-पोतकर सुन्दर बना दो। अरे रत्नाकरों ! तुम इस लिपे-पुते धरातल पर अपने महार्घ्य से महाय॑ मुक्ताफलों से. स्वास्तिक की रचना कर दो । प्रो पूर्णचन्द्र ! तुम इस मुक्ताफलों से निर्मित स्वस्तिक के समीप कुम्भकलश के रूप में विराजमान हो जाओ। और हे दिग्गजो ! तुम अपनी सूडों में धारण किये हुए प्रवेश द्वार पर विशाल तोरण वन्दनवार का निर्माण कर दो । तुम सब शीघ्रतापूर्वक अपना-अपना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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