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________________ ३५० ] . [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ आचार्यश्री देवचन्द्र के इस समयोचित प्रस्ताव का संघ के प्रत्येक सदस्य ने हार्दिक स्वागत किया । तत्काल प्रमुख ज्योतिर्विदों को बुलवाकर पट्ट महोत्सव का मुहूर्त निकलवाया गया। ज्योतिर्विदों ने ज्योतिष शास्त्र के आधार पर परस्पर विचार विनिमय के अनन्तर वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन मध्यान्ह वेला में मुनि सोमचन्द्र को आचार्यपद पर अधिष्ठित करने का मुहूर्त सर्वसम्मत रूप से निश्चित किया। इस मुहूर्त के सम्बन्ध में साधिकार रूप से कहा कि यह ऐसा सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है, जिसमें किसी भी पुरुष की अथवा देव की प्रतिष्ठा की जाय तो वह संसार में राजमान्य जगत्पूज्य होता है। आचार्यपद मोहत्सव की तैयारियां पर्याप्त समय पूर्व ही प्रारम्भ कर दी गईं । अरणहिल्लपुर पट्टण के नागरिकों ने बड़े उत्साह के साथ इस महोत्सव को अपूर्व बनाने में पूर्ण सहयोग दिया। गुर्जरेश्वर महाराज सिद्धराज जयसिंह स्वयं अपने राजसी वैभव के साथ इस महोत्सव में सम्मिलित हुए। निर्धारित मुहूर्त में वैशाख शुक्ला तृतीया की मध्यान्ह वेला में महाराज सिद्धराज जयसिंह, समस्त संघ और नागरिकों के समक्ष विविध वाद्ययन्त्रों की ध्वनि के बीच मुनि सोमचन्द्र को प्राचार्य पट्ट पर अधिष्ठित किया गया। तदनन्तर एक ही इंगित से सर्वत्र निस्तब्धता छा गई । आचार्य देवचन्द्र ने अगरु, कपूर और चन्दन के लेप से चर्चित मुनि श्री सोमचन्द्र के कान में सूरि मंत्र का उच्चारण किया। इस प्रकार मुनि सोमचंद्र को सूरि पद पर अधिष्ठित करते समय उनके गुरु श्री देवचन्द्रसूरि ने उनका नाम हेमचन्द्रसूरि रखा। इसी मंगल मुहूर्त में आचार्यश्री हेमचन्द्र की माता पाहिनी ने आचार्यश्री देवचन्द्र के मुखारविन्द से पंचमहाव्रतों की दीक्षा ग्रहण की। उसी समय आचार्य पद पर सद्यः आसीन हेमचन्द्रसूरि ने अपने गुरु देवचन्द्रसूरि को प्रार्थना कर अपनी माता पाहिनी को प्रवत्तिनी पद प्रदान करवा उनके लिये पट्ट पर बैठने का प्रावधान करवाया ।' प्राचार्यपद पर आसीन किये जाने के अनन्तर हेमचन्द्रसूरि विभिन्न क्षेत्रों में जिनशासन का प्रचार-प्रसार करते हुए एक समय विहारक्रम से अणहिल्लपुर पदृरण में पधारे। दूसरे दिन अपने राजसी ठाट-बाट के साथ पट्टहस्ती पर आरूढ़ महाराजा जयसिंह राजमार्ग पर जा रहे थे। उन्होंने पास ही के उपाश्रय में श्री हेमचन्द्रसूरि को बैठे हुए देखकर महावत के माध्यम से गजराज के कपोल में अंकुश लगवा कर १ प्रवर्तिनीप्रतिष्ठां च दापयामास नम्रगी: तदैवाभिनवाचार्यों गुरुभ्यः सभ्यसाक्षिकम् ॥६२।। सिंहासनासनं तस्य अन्वमानयदेष च । कटपे जननीभक्तिरुत्तमानां कषौपल: ।।६३॥ प्रभावक चरित्र पृष्ठ १८५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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