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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड-२ ] हेमचन्द्रसूरि [ ३४६ को स्तम्भित कर दिया और उससे कहा :- "हे लघु भैरवानन्द ! यदि तुम में शक्ति है तो तुम्हीं खा लो।" लघु भैरवानन्द ने अपने दोनों हाथों को हिलाने-डुलाने का पूरी शक्ति लगाकर प्रयास किया लेकिन उसके दोनों हाथ किंचिन्मात्र भी नहीं हिले । वह तत्काल मुनि हेमचन्द्र के पैरों पर गिरकर क्षमा मांगने लगा। मुनि हेमचन्द्र के चमत्कार की यह बात विद्युत्वेग से चारों ओर के ग्राम-ग्रामन्तरों में प्रसृत हो गई। मुनि हेमचन्द्र ज्योंही पत्तन के समीप • पहुंचे कि पत्तन निवासी उद्वेलित सागर की तरंगों की भांति हेमचन्द्रसूरि के स्वागत के लिये उमड़ पड़े। पत्तनपति महाराज जयसिंह देव भी मुनि हेमचन्द्र की अगवानी के लिये उनके सम्मुख आये। उन्होंने मुनि हेमचन्द्र को अपने पट्ट हस्ति पर बिठाकर कुछ ही दिन पूर्व अपने पुरोहित द्वारा तिरस्कृत हेमचन्द्रसूरि का नगर प्रवेश करवाया। तदनन्तर महाराज जयसिंह ने प्राचार्य देवचन्द्रसूरि को निवेदन कर हेमचन्द्र को आचार्य पद पर अधिष्ठित करवाया। सिद्धराज जयसिंह की प्रार्थना पर हेमचन्द्रसूरि अष्टमी और चतुर्दशी को राजभवन में जाकर पौषधागार (उपासनागार) में श्री स्थूलि भद्र के चरित्र का वाचन करने लगे।" मुनि हेमचन्द्र को हाथी पर आरूढ़ करने के सम्बन्ध में, इसमें लिखा है : ततः पत्तने प्रायातं श्री जयसिंहदेवः सन्मुखमेत्य समानीय हेमचन्द्र गजाधिरूढं प्रवेश्य च......" -प्रबन्ध चिन्तामरिण, पृष्ठ-६६ . मुनि सोमचन्द्र के अप्रतिम पांडित्य की प्रसिद्धि दूर-दूर तक प्रसृत हो गई। जन-जन के मुख पर यही बात प्रकट होने लगी कि मुनि सोमचन्द्र के कण्ठों में साक्षात् सरस्वती विराजमान है, जटिल समस्याओं की वे तत्क्षण पूर्ति कर देते हैं एवं चौदह विद्याओं के निधान मुनि सोमचन्द्र के समक्ष कोई विद्वान् क्षण भर भी टिक नहीं सकता। अपने सुयोग्य शिष्य सोमचन्द्र की जन-जन के मुख से इस प्रकार की ख्याति सुनकर देवचन्द्रसूरि ने उन्हें आचार्य पद पर आसीन करने का दृढ़ संकल्प किया। उन्होंने संघ के सदस्यों को आमन्त्रित कर उनके समक्ष अपना प्रस्ताव रखते हुए कहा :-"मुनि सोमचन्द्र जैनागमों के साथ-साथ सभी दर्शनों के पारदृश्वा विद्वान् बन गये हैं। उनमें प्राचार्य के योग्य सभी गुण प्रशस्त रूप से विद्यमान हैं। मैं अपना कार्यभार मुनि सोमचन्द्र के सबल कन्धों पर रखकर एकमात्र आत्मकल्याण की साधना में निरत रहना चाहता हूं। हमारे पूर्वाचार्यों ने भी परम्परा से समय-समय पर अपने हाथों से ही अपने सुयोग्य शिष्यों को प्राचार्य पद प्रदान कर अपने जीवन का संध्याकाल आत्मसाधना में ही व्यतीत किया है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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