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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
आते हुए हाथी से बचने के लिये वे एक भवन की दीवार से सट कर खड़े हो गये । झरोखे में बैठे हुए प्रालिंग पुरोहित ने उन्हें इस प्रकार खड़े रहने के लिये भला-बुरा कहा । हेमचन्द्र मुनि ने जाकर अपने गुरु से इस सम्बन्ध में निवेदन किया। गुरु ने हेमचन्द्र को कहा कि तुम इसके लिये मिथ्या दुष्कृत दो अर्थात् प्रायश्चित करो। इससे मुनि हेमचन्द्र को बड़ा दुःख हुआ और वह अपने गुरु के उपाश्रय से बाहर निकल कर अन्यगच्छीय देवचन्द्र और पद्माकर नामक दो मुनियों के साथ काश्मीर की ओर प्रस्थित हुआ। उन तीनों ने सरस्वती को प्रसन्न करने के लिये उपवास प्रारम्भ कर दिये । वे तीनों तपश्चरण करते हुए नडोला नामक ग्राम में पहुंचे । उस दिन उनके उपवास का सातवां दिन था । उनके सात उपवासों से सरस्वती प्रसन्न हुई और उसने हेमचन्द्र को दर्शन दिये । हेमचन्द्र ने अपने दोनों साथी मुनियों को देवी के दर्शन की बात कही। अपने दोनों मित्रों की कार्यसिद्धि के लिये मुनि हेमचन्द्र ने सत्तर श्लोकों की रचना कर नडोला ग्राम की महिमा का वर्णन किया और वे तीनों वहां से प्रस्थित हुए । स्तम्भ तीर्थ में प्रवेश करते-करते किसी एक देशान्तरीय व्यक्ति ने उन्हें बुलाकर एक विद्या प्रदान की और कहा :- " - "मेरा मरण समय सन्निकट है । मेरे मर जाने पर मेरे शव को श्मशान में ले जा मेरी नाभि पर तुम तीनों इस मन्त्र का जाप करना । मेरा शव तुम्हें यथेप्सित वरदान देगा ।" उस पथिक के कथनानुसार उसकी थोड़ी देर में मृत्यु हो गई और अर्द्ध रात्रि के समय उस शव की नाभि पर श्मशान में उन तीनों ने उस मन्त्र का जाप किया । शव तत्काल उठ खड़ा हुआ और बोला :- " वर मांगो।" मुनि हेमचन्द्र ने शव से यह वरदान मांगा :- " - " किसी राजा को बोध देने में मुझे सफलता प्राप्त हो ।" देवचन्द्र ने आकर्षिणी विद्या का वरदान मांगा और पद्माकर ने प्रकाण्ड पांडित्य का । उन तीनों मुनियों को उनके मुंहमांगे वरदान देकर शव श्मशान में पुनः गिर पड़ा ।
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इस प्रकार वरप्राप्ति के अनन्तर मुनि हेमचन्द्र अपने गुरु की सेवा में उपस्थित होने के लिये लौट पड़े । मार्ग में काल भैरवी चण्डी के मन्दिर में मुनि हेमचन्द्र विश्राम के लिये ठहरे । उसी समय लघु भैरवानन्द अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ चण्डी के मन्दिर में आया । उसने देवी को सम्बोधित करते हुए कहा :- "अहो प्रचण्ड चण्डे चण्डिके ! मुझे लड्डू दे ।" इस प्रकार कह कर लघु भैरवानन्द ने अपना स्वर्णमय खप्पर देवी की प्रतिमा के आगे कर दिया और देवी ने तत्काल उस सोने के खप्पर को लड्डुओं से भर दिया । लघु भैरवानन्द ने वहां उपस्थित सभी लोगों को लड्डू दिये । उसने मुनि हेमचन्द्र की ओर भी खप्पर को आगे सरकाते हुए कहा :-' - "मेरे शिष्य ! तू भी लड्ड ले ।" हेमचन्द्र ने उसके दोनों हाथों
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