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________________ सामान्य श्रृंतधर काल खण्ड २ ] . हेमचन्द्रसूरि [ ३४७ लिये देवी सरस्वती की उपासना करना चाहता हूं। मुझे आज्ञा दीजिये। मैं यथाशक्य शीघ्र ही लौटने का प्रयास करूंगा।" इस प्रकार की साधना से किशोर मुनि को अवश्यमेव ही लाभ होगा, यह विचार कर देवचन्द्रसूरि ने सोमचन्द्र मुनि के मस्तक पर अपना वरद हस्त रखते हुए कहा :- "वत्स ! तुम पर सरस्वती बिना किसी प्रकार की उपासना के ही प्रसन्न है। यही कारण है कि तुम्हारी तुलना करने वाला कोई विद्वान् आज कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता । अल्प वय को देखते हुए तुमने जो अध्ययन किया है, वह स्तुत्य है । उसमें परिपक्वता तो शनैः शनैः आयु और अनुभव इन दोनों की वृद्धि से ही प्राप्त होगी। किन्तु तुम्हारी मुखमुद्रा से मुझे यह स्पष्टतः अनुभव हो रहा है कि तुम श्रृत देवता सरस्वती की उपासना के लिए कृत संकल्प हो। मैं तुम्हें अनुमति देता हूं कि अपने अटल निश्चय के अनुसार तुम विद्या देवी की उपासना करो और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के पश्चात् शीघ्र ही लौटो । मेरी और संघ की शुभ कामनाएं तुम्हारे साथ हैं।" - अपने गुरु की अनुज्ञा प्राप्त कर कतिपय गीतार्थ मुनियों के साथ विद्या के केन्द्र ब्राह्मी देश की ओर मुनि सोमचन्द्र ने प्रस्थान किया। विहारक्रम से रैवताचल को पार कर मुनि सोमचन्द्र नेमिनाथ तीर्थ में आये और एकान्त स्थान में ठहरे। रात्रि में अपने नासाग्र पर दृष्टि जमाये मुनि सोमचन्द्र ब्राह्मी की आराधना में निरत हो गये । सभी चित्तवृत्तियों के निरोधपूर्वक एकाग्र मन से विद्या की देवी ब्राह्मी की उपासना के परिणामस्वरूप लगभग अर्द्ध रात्रि के समय ब्राह्मी देवी उनके समक्ष प्रकट हुई और अपना वरद हस्त ऊपर उठा मुनि सोमचन्द्र को सम्बोधित करते हुए कहा :- "हे विशुद्धमना वत्स! अब आपको देशान्तर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है । मैं तुम्हारी निष्ठापूर्ण अनन्य भक्ति से तुम पर प्रसन्न हूं । तुम्हारा अभीप्सित कार्य यहीं सिद्ध हो जायगा।" - ब्राह्मीदेवी इस प्रकार मुनि सोमचन्द्र को वरदान देकर अदृश्य हो गई । देवी के अन्तहित हो जाने के अनन्तर भी मुनि सोमचन्द्र ने शेष रात्रि वाणी की अधिष्ठात्री देवी ब्राह्मी की उपासना में ही व्यतीत की। इस प्रकार बिना किसी विशेष कष्ट के मुनि सोमचन्द्र सिद्ध सारस्वत कवि एवं विद्वद् शिरोमणि बन गये और अपने गुरु की सेवा में लौट गये । प्रबन्ध चिन्तामणि की एक बी डी के चिह्न से अंकित प्रति में हेमचन्द्रसूरि पर सरस्वती के प्रसन्न होने का विवरण निम्नलिखित रूप में उपलब्ध होता है : "केश लुचन के तत्काल पश्चात् हेमचन्द्र नामक एक शिष्य प्राशुक जल लाने के लिये किसी सद्गृहस्थ के घर की ओर जा रहे थे। मार्ग में सामने १. प्रभावक चरित्र, हेमचन्द्रसूरि का प्रकरण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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