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________________ ३४६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ प्रबन्ध चिन्तामरिण विक्रम सम्वत् १३६१ की कृति है । इस प्रकार प्रभावक चरित्र प्रबन्ध चिन्तामणि से २७ वर्ष पूर्व की रचना है । तथापि हेमचन्द्रसूरि की दीक्षा के सम्बन्ध में अन्य कोई प्रामाणिक लेख के अभाव में निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि इन दोनों उल्लेखों में कौनसा उल्लेख वस्तुत: ठीक है । इतना होते हुए भी प्रभावक चरित्र में उल्लिखित दीक्षाकाल ही अन्यत्र कतिपय ग्रन्थों में उपलब्ध होता है । इस कारण जब तक कि अन्य कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध न हो जाय तब तक प्रभावक चरित्र के उल्लेख को ही प्रामाणिक मानने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है । प्रबन्ध - चिन्तामरिणकार ने कुमारपाल प्रबन्ध में :- - तदनु सुतस्य प्रव्रज्याकररणोत्सवश्चाचिगेन चक्रे ।" इस उल्लेख से यह स्पष्ट किया है कि हेमचन्द्र सूरि की दीक्षा के महोत्सव में उनके पिता चाचिग ने ही व्ययभार वहन किया । नवदीक्षित मुनि सोमचन्द्र अपने गुरु की सेवा में रहकर बड़ी निष्ठा के साथ अध्ययन करने लगे । अतिशय मेधावी मुनि सोमचन्द्र ने अनुक्रमशः संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, आदि भाषाओं का बोध प्राप्त करने के अनन्तर साहित्य, व्याकरण, तर्कशास्त्र, छन्दशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र आदि अनेक विद्याओं का निष्ठापूर्वक अध्ययन करते हुए उन सब विषयों में पारीणता प्राप्त की । गुरु के चरणों की सेवा करते हुए उन्होंने जैनागमों एवं आगमिक साहित्य का भी तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया। मुनि सोमचन्द्र की स्मरण शक्ति इतनी तीव्र थी कि किसी भी विषय के ग्रन्थ को दो तीन बार पढ़ने मात्र से ही वह ग्रन्थ कण्ठस्थ हो जाता था । किशोर वय में ही वे स्व पर दर्शन के अपने समय के अप्रतिम विद्वान् बन गये और उनके पांडित्य की ख्याति चारों और प्रसृत हो गई । प्रभावक चरित्र के उल्लेखानुसार सभी विद्याओं में निष्णातता प्राप्त करने के अनन्तर भी मुनि सोमचन्द्र को प्रात्म-सन्तोष नहीं हुआ । वे मन ही मन सोचने लगे - " पूर्वकाल में आर्य वज्र आदि ऐसे प्रतिभाशाली पदानुसारिणी विद्या के धनी विद्वान् हुए हैं, जो एक पद को देखते ही एक लाख पदों का ज्ञान प्राप्त कर लेते थे, उस प्रकार की विलक्षण प्रतिभा अथवा लब्धि प्राप्त हो तभी प्रथाह ज्ञान उपार्जित करके जिनशासन के उत्कर्ष, प्रचार एवं प्रसार के लिये परमोपयोगी उत्तम साहित्य का निर्माण किया जा सकता है । अन्यथा इस प्रकार एक-एक विषय के तलस्पर्शी ज्ञान को प्राप्त करने के लिये विभिन्न विषयों के अनेकानेक बड़े-बड़े ग्रन्थों को पढ़ने में ही पूरी आयु व्यतीत हो जायगी और जिनशासन की सेवा के लिये, प्रभावना के लिए मैं कुछ भी नहीं कर सकूंगा । धिक्कार है मुझे ; जो मैंने इस प्रकार की बुद्धि प्राप्त की है । ऐसी स्थिति में मुझे सरस्वती की उपासना करनी पड़ेगी ।" पर्याप्त सोच-विचार के अनन्तर मुनि सोमचन्द्र ने सरस्वती की उपासना करने का दृढ़ संकल्प किया और एक दिन प्रातःकाल अपने गुरु श्री देवचन्द्रसूरि के चरणों पर अपना मस्तक रखते हुए उन्होंने निवेदन किया :- "भगवन् ! मैं विद्यासिद्धि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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