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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
सुखोपभोगों के लिये भी तो गुर्जर प्रदेश की धीर वीर साहसी रमणियां अपने प्राणाधार पति-पुत्रों को समुद्री यात्रा हेतु सदा से ही सहर्ष विदा करती आई हैं, अगाध अपार सागर के कोड में समर्पित करती आई हैं । अब मेरे पूज्य धर्माचार्य तो जिनशासन की सेवा के लिये, परमार्थ के लिये, धर्माभ्युदय के लिये मेरे पुत्र की याचना कर रहे हैं । इहलोक एवं परलोक को सुधारने-संवारने वाले इस पारमार्थिक पुनीत कार्य के लिये अपने पुत्र को समर्पित करने में तो मुझे किसी प्रकार का व्यामोह और किसी प्रकार की हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये ।" इस प्रकार विचार कर पाहिनी ने अपने अन्तर में उद्वेलित होते हुए पुत्र-वियोग के दुःख को श्लाघनीय उत्कट साहस से दबाकर अपने होनहार पुत्र चंगदेव को अपने धर्मगुरु देवचन्द्रसूरि के चरणों में सदा के लिये समर्पित कर दिया।'
श्री देवचन्द्रसूरि ने दुलार भरे स्वर में बालक चंगदेव से प्रश्न किया :"बोलो सौम्य ! क्या तुम मेरे शिष्य बनोगे ?' बालक ने मधुर मुस्कान से वातावरण में मधु सा घोलते हुए उत्तर दिया :-"हां महाराज !"२
बालक चंगदेव को अपने साथ लेकर देवचन्द्रसूरि ने माघ शुक्ला चतुर्दशी (विक्रम सम्वत् ११५०) के दिन शुभ मुहूर्त में धुन्धुका नगर से स्तम्भ तीर्थ की ओर विहार किया। विहारक्रम से स्तम्भ तीर्थ पहुंचने पर प्राचार्य श्री पार्श्वनाथ के मन्दिर में ठहरे । बालक चंगदेव मन्त्रीश्वर एवं सामन्त उदयन के भवन पर रह समवयस्क बालकों के साथ पढ़ने लगा।
___ श्री देवचन्द्रसूरि के साथ बालक चंगदेव के धुन्धुका से चले जाने के कतिपय दिनों पश्चात श्रेष्ठ चाचिगदेव अन्य नगरों में अपने व्यावसायिक कार्य से निवृत्त हो धुन्धुका लौटा। अपने घर आते ही अपने पुत्र को घर में इधर-उधर कहीं नहीं देखकर चाचिग ने व्यग्र स्वर में अपनी पत्नी से पूछा :-"चंग कहां है ?"
पाहिनी ने मधुर स्वर में सब वृत्तान्त सुनाते हुए अपने पति से कहा कि शासनहित अोर स्वप्न के अदृष्ट संकेत को दृष्टिगत रखते हुए उसने उस होनहार पुत्र को प्राचार्य श्री देवचन्द्रसूरि के कर-कमलों में समर्पित कर दिया है।
अपने प्राणप्रिय एकमात्र पुत्र को सदा के लिए प्राचार्यश्री के समर्पित किये जाने की बात सुनकर श्रेष्ठ चाचिग बड़ा रुष्ट हुआ। पुत्र-विछोह में उसे घर-बार संसार शून्य-सा प्रतीत होने लगा। उसने दृढ़ स्वर में—'मैं जब तक अपने लाडले लाल को देख नहीं लूंगा, तब तक अन्न ग्रहण नहीं करूंगा।" यह कह कर स्तम्भतीर्थ की ओर तत्काल प्रस्थान कर दिया। मार्ग में बिना क्षण भर भी विश्राम किये वह
१. प्रभावक चरित्र, श्लोक संख्या ३१, पृष्ठ १८४ २. प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ १३५
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