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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] मलयगिरि [ ३१३ यह कारिका आचार्य हेमचन्द्र की " अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका" की है । प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि के प्रति "गुरव:" इस प्रति सम्मानपूर्ण शब्द के प्रयोग से यह स्पष्टतः प्रकट कर दिया है कि कलिकाल सर्वज्ञ के विरुद से विभूषित प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि के वे समकालीन प्राचार्य थे, हेमचन्द्रसूरि के प्रकांड पांडित्य का उन पर गहरा प्रभाव था और वे उनका गुरु के समान आदर करते थे । आचार्य मलयगिरि द्वारा ग्रागम ग्रन्थों पर निर्मित इन प्रति महत्त्वपूर्ण टीकाओं से प्रत्येक विज्ञ के मन मस्तिष्क पर उनके प्रति गहन तलस्पर्शी प्रकांड पांडित्य की छाप स्पष्ट रूपेण अंकित हो जाती है। उनकी शैली में प्रौढ़ता प्रांजलता और प्रासादिकता प्रस्फुटित -सी होती प्रतीत होती है । आचार्य मलयगिरि की उपलब्ध एवं अनुपलब्ध लगभग दो-ढाई लाख श्लोक परिमाण कृतियों से प्रभावित हो विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी के ग्रन्थकार श्री जिन मंडनगणी ने अपनी कृति " कुमारपाल प्रबन्ध" में प्राचार्य मलयगिरि के सम्बन्ध में एक चमत्कारिक घटना का उल्लेख किया है । उसमें यह बताया गया है कि प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि ने अपने मुनि जीवनकाल में गुरु की प्राज्ञा प्राप्त कर अपने से भिन्न गच्छीय देवेन्द्रसूरि एवं मलयगिरि के साथ विद्याओं में निष्णातता प्राप्त करने के उद्देश्य से गौड प्रदेश की ओर विचरण किया । अपने लक्ष्य स्थल की ओर बढ़ते हुए इन तीनों ने "खिल्लूर" नामक ग्राम में एक रुग्ण साधु को देखा । उन तीनों मुनियों ने उस रोग ग्रस्त साधु की भली-भांति सेवा सुश्रूषा की । एक दिन उस व्याधिग्रस्त साधु ने रैवतक तीर्थ ( गिरनार ) की यात्रा करने की उन तीनों मुनियों के समक्ष अपनी उत्कट अभिलाषा व्यक्त की । रुग्ण साधु की इच्छापूर्ति हेतु हेमचन्द्र, देवेन्द्र और मलयगिरि इन तीनों साधुओं ने ग्रामवासियों को समझा-बुझाकर डोली की व्यवस्था की । तदनन्तर वे तीनों आवश्यक कार्यों से निवृत्त हो रात्रि के समय यथासमय सो गये । प्रातःकाल जब उन तीनों मुनियों की निद्रा भंग हुई तो यह देखकर उनके आश्चर्य का पारावार नहीं रहा कि वे गिरनार पर्वत पर बैठे हुए हैं । उसी समय शासनाधिष्ठात्री देवी ने उनके समक्ष उपस्थित होकर कहा :- "आप तीनों मुनियों की परोपकार वृत्ति श्लाघनीय है । आप तीनों के अभीप्सित कार्य यहीं निष्पन्न हो जाएंगे | अब आपको अन्यत्र कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है ।" तदनन्तर उन तीनों मुनियों को अनेक मन्त्र औषधियां यादि प्रदान कर शासननायिका देवी तिरोहित हो गई । तदनन्तर उन तीनों को गुरु ने सिद्धचक मन्त्र दिया । उन्होंने उस मन्त्र की आराधना - साधना की । उनकी आराधना से प्रसन्न हो मन्त्र के अधिष्ठाता विमलेश्वर देव ने उन तीनों को इच्छानुसार वर मांगने को कहा । हेमचन्द्रसूरि ने राजा को प्रतिबोध देने का, देवेन्द्रसूरि ने एक ही रात्रि के अन्दर कान्तिनगरी से मन्दिर उठाकर सेरिसक ग्राम में प्रतिष्ठापित करने का और मलयगिरि ने जैन सिद्धान्तों की वृत्तियां निर्माण करने का वर मांगा । विमलेश्वरदेव उन्हें यथेप्सित वरदान देकर अन्तर्धान हो गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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