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________________ ३०४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ इस उल्लेख की प्रामाणिकता वस्तुतः विचारणीय हो जाती है। प्रबन्ध चिन्तामणि से पूर्व की रचना प्रभावक चरित्र में यह भी उल्लेख है कि राज्यसभा में हुए शास्त्रार्थ में देवसूरि से पराजित हो जाने के उपरान्त भी कुमुद चन्द्राचार्य ने देवसूरि से अपनी पराजय का प्रतिशोध लेने में किसी भी प्रकार की कोर कसर नहीं रखी । उसने मन्त्र-तन्त्र बल का सहारा ले देवसूरि के उपाश्रय में रात्रि के समय चूहों की एक सेना-सी उत्पन्न कर उनके शिष्यों तथा स्वयं उनके वस्त्रों तथा अोधा आदि धर्मोपकरणों की केवल कुतरन मात्र अवशिष्ट रखी। प्रातःकाल चूहों की इस लीला को देखकर श्रमणों ने देवसूरि को चूहों द्वारा की गई ध्वंस लीला दिखाई । एक क्षण मौन रह कर देवसूरि ने कहा-"अच्छा ! वह दिगम्बराचार्य हम सबको भी स्वयं की भांति नग्न करना चाहता है।” उन्होंने अपने शिष्य को आदेश देकर लवण से भरा एक घड़ा मंगवाया और एक कपड़े से उस घट का मुख अच्छी तरह बांध दिया। उस घड़े को अभिमन्त्रित कर उपाश्रय के एकान्त स्थान में एक ओर रखवा दिया। तदनन्तर देवसूरि ने अपने श्रमणसमूह को आश्वस्त करते हुए कहा-"आप लोग किसी प्रकार की चिन्ता न करें। कुछ ही घटिकाओं के अन्दर एक बड़ा कौतुक होने वाला है। उन्हें शीघ्र ही ज्ञात हो जायगा कि उनके द्वारा किये गये अपकार का कितना कड़वा फल उन्हें मिल रहा है।" नमक से पूर्ण घट को अभिमन्त्रित कर एक ओर रखे पौन प्रहर भी व्यतीत नहीं हुआ था कि दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र के श्रावक सांजलि शीष झुकाये देवसूरि के समक्ष उपस्थित हुए और करुण स्वर में प्रार्थना करने लगे :-"भगवन् ! कृपा कर हमारे गुरु को भीषण बाधा से मुक्त कर दो।" देवसूरि ने दिगम्बराचार्य के उपासकों से प्रश्न किया-"मेरे उन बन्धु को क्या बाधा हो गई है, किस प्रकार का कष्ट हो गया है । मुझे बतायो ।" इस प्रकार स्थिति से नितान्त अनभिज्ञ होने का अभिनय-सा करते हुए देवसूरि ने स्पष्ट रूप से उन उपासकों को कह दिया कि कुमदचन्द्र आचार्य की बाधा के विषय में उन्हें कुछ ज्ञात नहीं है। हताश हो दिगम्बराचार्य के उपासक मठ की ओर लौट गये । डेढ़ प्रहर बीतते-बीतते प्राचार्य कुमुदचन्द्र स्वयं अपने शिष्य समूह के साथ देवसूरि के समक्ष उपस्थित हुए । देवसूरि ने उन्हें बाहुपाश में आबद्ध कर अपने असिन पर बिठाया और बड़े मृदु स्वर में उनसे पूछा- "मेरे भाई ! तुम्हें किस प्रकार की पीड़ा है ? मुझे ज्ञात कराओ।" कमदचन्द्र आचार्य ने अनुनय भरे-विनम्र स्वर में कहा :--"आप मुझ पर इतना प्रगाढ़ क्रोध मत करो । मुझे पीड़ा से मुक्त करो। मुझे निरोध की पीड़ा से विमुक्त करो अन्यथा वायु और मूत्र के निरोध के कारण सुनिश्चित है कि मेरी कुछ ही क्षणों में मृत्यु हो जायगी।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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