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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
वादिदेवसूरि
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३०५.
कुमुदचन्द्र के इस प्रकार के दीन वचन सुनकर देवसूरि ने कहा :-"प्राप अपने शिष्य परिवार सहित शीघ्र ही मेरे उपाश्रय के बाहर जाकर ठहरिये । मैं कुछ उपाय करता हूं।"
- देवसूरि का इस प्रकार का आदेश प्राप्त होते ही प्राचार्य श्री कुमुदचन्द्र अपने उपासक परिवार सहित उपाश्रय के बाहर जाकर ठहर गये। उन सब के उदर वायु से ओत-प्रोत मशक की तरह फूले हुए थे। उन सबके बाहर जाते ही देवसूरि ने अपने एक शिष्य को आदेश देकर नमक से भरा हुआ घट मंगवाया और उसमें बांधे हुए वस्त्रखण्ड को दूर हटा उसके मुख को खुला कर दिया। तत्काल दिगम्बराचार्य और उनके शिष्य वर्ग का निरोध दूर हो गया । और प्रचुर मात्रा में प्रवाहित हुए उनके मूत्र प्रवाह को देखकर सभी उपस्थित दर्शक आश्चर्याभिभूत हो उठे।
निरोध के दूर होते ही कुमुदचन्द्र और उनके शिष्य वर्ग को असीम शान्ति का अनुभव हुआ। किन्तु कुमुदचन्द्र अपने पराभव के शोक से सन्तप्त होकर पाटन से उसी प्रकार अदृश्य हो गये जिस प्रकार कि अमावस्या की रात्रि में चन्द्र ।
देवसूरि की विजय और विद्वत्ता से प्रसन्न हो सिद्धराज जयसिंह, जो उन्हें एक लाख स्वर्ण मुद्राएं तुष्टिदान के रूप में देना चाहते थे, उस राशि के देवसूरि द्वारा अस्वीकार किये जाने के अनन्तर अपने मन्त्रियों के परामर्श से उन्होंने भगवान् ऋषभदेव का एक विशाल मन्दिर उस धन-राशि के व्यय से बनवाया। विक्रम सम्वत् ११८३ में देवसूरि ने अन्य तीन प्राचार्यों के साथ उस मन्दिर में भगवान् आदिनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा की।
... देवसूरि के अद्भुत अतिशय और प्रताप का उल्लेख करते हुए प्रभावक चरित्रकार ने लिखा है कि एक समय देवसूरि अपने संघ के साथ पिप्पलवाटक नामक विकट वन में विहारचर्या करते हुए जा रहे थे। उस समय एक भूखा केशरी सिंह घोर गर्जना के साथ छलांग भरता हुआ संघ की ओर बढ़ा । देवसूरि ने तत्काल आगे बढ़कर पृथ्वी पर एक रेखा खींच दी और सिंह तत्काल जिस अोर से आया था उसी ओर लौट गया, और संघ ने आगे की ओर विहार किया।
हिरू प्राणियों से संकुल उस भीषण निर्जन वन में लम्बे विहार के कारण बालक एवं वद्ध वय के जो अनेक संत संघ में साथ थे, वे भख और प्यास से पीड़ित एवं क्लिष्ट हो उठे। उस निर्जन वन में न तो उनकी भूख और प्यास को शान्त करने का ही कोई उपाय था और न वे क्षुधा तृषातुर बाल-वृद्ध सन्त आगे की ओर बढ़ने में ही सक्षम रह गये थे । इस प्रकार की संकटापन्न स्थिति में अपने आश्रितों की पीड़ा से द्रवित हो देवसूरि ने एकाग्र मन से शासनेश का स्मरण किया। यह देखकर सभी के आश्चर्य का पारावार न रहा कि पीछे की ओर से एक विशाल
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