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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] वादिदेवसूरि
[ ३०३ मेरुतुङ्गसूरि आदि अनेक ग्रन्थकारों ने देवसूरि की इस विजय पर अपने हर्षोद्गार अभिव्यक्त कर इस घटना को एक ऐतिहासिक घटना का रूप प्रदान किया है।
प्रबन्ध चिन्तामणि के उल्लेखानुसार स्वयं राजा जयसिंह शास्त्रार्थ में विजयी देवसूरि को अपनी राज्यसभा से उनके उपाश्रय तक पहुंचाने पूरे राजकीय ठाट-बाट के साथ गया था ।'
अंचलगच्छीय पुरातन प्राचार्य श्री मेरुतुङ्ग द्वारा विक्रम सं० १३६१ में रचित 'प्रबन्धचिन्तामणि' के उल्लेखानुसार अनहिलपुर पत्तन की राजसभा में महाराजा सिद्धराज जयसिंह की विद्यमानता में हुए शास्त्रार्थ में देवसूरि द्वारा दिगम्बराचार्य जब पराजित कर दिया गया तो चालुक्यराज ने पराजित हुए दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र को प्रासाद के अपद्वार (कूकरा बारी) से बाहर निकलवा दिया और इस घोर अपमान एवं पराजय के दुःख के परिणामस्वरूप उसका हृदय फट गया। और वह तत्काल इहलीला समाप्त कर परलोक को प्रयाण कर गया। प्रबन्धचिन्तामणि का एतद्विषयक वह उल्लेख इस प्रकार है :
"अथ प्रथममेव 'वाचस्ततो मुद्रिता' इति स्वयं पठितमिति स्वयमपशब्दप्रभावात्तदा तु प्रादुर्भूतमुखमुद्रः । श्री देवाचार्येण निर्जितोऽहमिति स्वयमुच्चरन् श्री सिद्धराजेन' पराजितव्यवहारादपद्वारेणापसार्यमाणः संभवत्पराभवाविर्भावादहद्विस्फोटं प्राप्य विपेदे।"२
आचार्य मेरुतुङ्ग द्वारा रचित प्रबन्ध चिन्तामरिण से २७ वर्ष पूर्व दृब्ध किये गये प्रभावकचरित्र में उल्लेख है कि देवसूरि के निवेदन पर सिद्धराज जयसिंह ने उनके निर्देश को शिरोधार्य करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि पराजित हुए कुमुदचन्द्र के साथ किसी भी प्रकार का अपमानजनक अथवा अभद्र व्यवहार नहीं किया जायेगा। इसके पूर्व ही प्रभावकचरित्र में यह स्पष्ट उल्लेख कर दिया गया है कि दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र वस्तुतः महाराज जयसिंह के मातामह अर्थात् राजमाता मयणलदेवी के पिता कर्णाटकेश्वर जयकेशी के गुरु थे। इसी कारण राजमाता मयणलदेवी का झुकाव भी शास्त्रार्थ से पूर्व कुमुदचन्द्र की ओर ही था । इस प्रकार की स्थिति में और विशेषतः राजमाता मयणलदेवी की विद्यमानता में तथा देवसूरि के समक्ष पत्तनाधीश द्वारा यह स्वीकार कर लिये जाने पर कि पराजित कुमुदचन्द्र के साथ किसी भी प्रकार का अपमानजनक व्यवहार नहीं किया जायगा, मेरुतुग प्राचार्य द्वारा किये गये "सिद्ध नरेश्वर ने कुमुदचन्द्र को अपद्वार से निकलवाया।"
१. प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ १११ २. प्रबन्ध चिन्तामणि, पृ० १११ ३. वही, पृष्ठ १०८
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