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पूर्व पीठिका ]
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नितान्त अध्यात्मपरक जिनशासन की विशुद्ध मूल परम्परा पर बड़ा ही घातक कुप्रभाव पड़ा । विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले श्रमण श्रमणी वर्ग की संख्या में उत्तरोत्तर बड़ा ही श्राश्चर्यकारी ह्रास होता गया । विक्रम की नवमीं शताब्दी के आसपास तो स्थिति यहां तक पहुंच गई कि आगमानुसारी विशुद्ध श्रमरण धर्म का पालन करने वाले विरले साधु भारत के केवल उत्तरी भाग में ही अवशिष्ट रह गये । विशुद्ध श्रमरणाचार का पालन करने और प्रागमानुसारी विशुद्ध धर्ममार्ग का उपदेश करने वाले सच्चे त्यागी - विरागी श्रमणों का सम्पर्क- संसर्ग न मिल पाने के कारण श्रावक-श्राविका वर्ग भी जैन धर्म के विशुद्ध स्वरूप से उत्तरोत्तर अनभिज्ञ होता चला गया। भारत के अधिकांश भागों में शिथिलाचार-परायण चैत्यवासी, मठवासी, भट्टारक एवं यापनीय श्रमण श्रमणियों और उनके श्रावक श्राविकाओं का एक प्रकार से एकाधिपत्य हो गया ।
इन द्रव्य परम्पराओं के श्रमरण-श्रमणियों के नितान्त दोषपूण और शास्त्रों से पूर्णतः प्रतिकूल आचार-विचार को ही तत्कालीन प्रबल बहुसंख्यक समुदाय प्रभु महावीर द्वारा प्ररूपित प्रदर्शित विशुद्ध श्रमरणाचार समझने लगा । चारों ओर शिथिलाचार का और धर्म में विकृतियों का बोलबाला हो गया । "
शिथिलाचार के भीषण घटाटोप में विशुद्ध श्रमरणाचार के साथ धर्म का स्वच्छ, विशुद्ध मूल स्वरूप ठीक उसी प्रकार प्रच्छन्न हो गया, जिस प्रकार की काली काली सघन घन घटाओं की ओट में प्रचण्ड मार्तण्ड छिप जाता है । चैत्यवासी परम्पराओं एवं उसका अन्धानुकरण करने वाली द्रव्य परम्परात्रों ने न केवल श्रमणाचार में ही अपितु अहिंसा एवं अध्यात्म प्रधान विश्व कल्याणकारी जैनधर्म के विशुद्ध मूल स्वरूप में भी आमूलचूल अनेक प्रकार की विकृतियां उत्पन्न कर उसे आगमों में प्रतिपादित स्वरूप से नितान्त भिन्न (विपरीत) स्वरूप प्रदान कर डाला । शास्त्रों में प्रतिपादित मूल विशुद्ध धर्म का उपदेश करने और "विहंगमा व पुप्फेसु दारणभत्तेसणे रया" इस प्रागम वचन के अनुसार विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले त्यागी, तपस्वी और निष्परिग्रही स्वल्पातिस्वल्प संख्यक सच्चे साधुओं की एवं उनके सच्चे उपासकों की संख्या भी नगण्य सी रह गई । सर्वत्र . विपुल परिग्रह के स्वामी अहर्निश प्रारम्भ समारम्भ के नानाविध सावद्य कार्यों में पूर्णतः निरत- लिप्त और श्रीमन्त गृहस्थों से भी अत्यधिक आडम्बरपूर्ण ठाट, बाट, वैभव, छत्र, चामर, सुखासन, स्वर्ण सिंहासन आदि एक दूसरे से बढ़कर परिग्रह के धनी साधु नामधारी आचार्यों, मठाधीशों, भट रकों आदि द्रव्य परम्पराओं के कर्णधारों का वर्चस्व छा गया ।
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द्रव्य परम्पराओं द्वारा जैन धर्म की आगम प्रतिपादित विशुद्ध मूल धारा में चतुविध संघ के प्रचार-विचार व्यवहार में उत्पन्न की गई विकृतियों और
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जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग ३ पृष्ठ ५६ से ६४
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