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________________ [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ आगम विरुद्ध मान्यताओं के देशव्यापी प्रचार-प्रसार एवं प्रबल बहुसंख्यक जैन धर्मावलम्बियों में उन मान्यताओं, विधि-विधानों आदि के व्यापक रूप से रूढ़ हो जाने के प्रारम्भ से लेकर अद्यावधि पर्यन्त के इतिवृत्त पर अति सूक्ष्म दृष्टि डालने के बाद हमारी वह धारणा विश्वास के रूप में परिणत हो गई कि देवद्धि गणि क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर उनकी शिष्य परम्परा अर्थात् श्रमण भगवान् महावीर की मूल परम्परा की पट्टावलियां एवं उस परम्परा का क्रमबद्ध इतिहास उस समय की वर्चस्वशाली इन द्रव्य परम्परा के प्राचार्यों, विद्वानों एवं अनुयायियों द्वारा चुन-चुन कर नष्ट कर दिया गया। यही कारण है कि देवद्धि गणि क्षमाश्रमण जैसे महाप्रतापी, प्रबल प्रभावक एवं विशाल शिष्य सन्तति वाले महान् वाचनाचार्य के बाद उनकी पट्ट परम्परा के प्राचार्यों का, उनके जन्म, गृहवास, दीक्षा तिथि. प्राचार्य काल एवं स्वर्गारोहणकाल के अतिरिक्त कोई विशेष परिचय जैन वांग्मय में कहीं उपलब्ध नहीं होता। देवद्धि के स्वर्गारोहण के साथ ही पूर्व ज्ञान विच्छिन्न हो गया था अर्थात् पूर्व ज्ञान का धारक कोई प्राचार्य अथवा श्रमण नहीं रहा, इसी कारण देवद्धिगणि से उत्तरवर्ती काल की उनके पट्टधरों की नामावलि के प्राचार्यों के नाम के पहले वाचक अथवा वाचनाचार्य शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है । वस्तुतः “वाचको पूर्वधरः" इस वाचक शब्द की व्याख्या के अनुसार आर्य देवद्धिगणि के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् हमारी इस आर्यधरा पर किसी पूर्वधर के अवशिष्ट नहीं रहने के कारण पूर्वधर परम्परा का अस्तित्व नहीं रहा। कतिपय परम्परागों की पट्टावलियों में आर्य देवद्धि श्रमाश्रमण के स्वर्गस्थ हो जाने के अनन्तर एक दो शताब्दी बीत जाने के पश्चात् कतिपय प्राचार्यों, कवियों एवं व्याख्याता साधुओं के नाम से पूर्व वाचक विरुद का उपयोग किया गया है किन्तु वाचक शब्द की उपरिलिखित व्याख्या के अनुसार पूर्वज्ञान के विच्छिन्न हो जाने के कारण किसी भी अवान्तर कालवर्ती प्राचार्य अथवा श्रमण के नाम के पूर्व वाचक अथवा वाचनाचार्य शब्द का प्रयोग पूर्णतः परम्परा से अमान्य एवं अनुचित है। देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण के पट्टधरों अर्थात् उनके पट्टधर आचार्यों की पट्टावली हमें, जैसा कि तृतीय भाग में बताया जा चुका है, जैतारण के भंडार से प्राप्त हुई है, जिसके सम्बन्ध में अनेक जगह इस प्रकार का उल्लेख है कि देवद्धिगरिंग क्षमाश्रमण के उत्तराधिकारी प्राचार्यों की जो मूल पट्टावली जैसलमेर के भण्डार से उपलब्ध हुई, उसी की यह प्रतिलिपि है। गहन शोध के उपरान्त भी इस पट्टावली के अतिरिक्त देवद्धिगरिण के उत्तराधिकारियों की पट्टावली नहीं मिली। अतः हमने तृतीय भाग में इसी पट्टावली को प्रामाणिक मानकर इसी के मूल आधार पर ठीक उसी प्रकार आलेखन किया है, जिस प्रकार कि द्वितीय भाग का आलेखन वाचनाचार्य परम्परा की पट्टावली को परम प्रामाणिक मानकर किया गया है। हमारी यह मान्यता है कि जिस प्रकार नन्दी सूत्रीया वाचनाचार्य पट्टावली कंकाली टीले की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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