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________________ १२] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ यहां केवल यही बताना अभीष्ट है कि वीर निर्वारण सम्वत् १००० में एक पूर्वधर अन्तिम प्राचार्य देवद्विगरिण के स्वर्गस्थ हो जाने के पश्चात् हुंडावसर्पिणी काल के तथा भगवान् महावीर के निर्वारणकाल में भस्म ग्रह के योग के प्रभाव के परिणामस्वरूप श्रमण भगवान् महावीर के चतुविध धर्मतीर्थ के प्राचार - विचार व्यवहार आदि में अनेक प्रकार की विकृतियां उत्पन्न होने लगीं और श्रमरण वर्ग में शिथिलाचार बड़े प्रबल वेग से पनपने लगा । अपने शिथिलाचार को लोकदृष्टि में संगत सिद्ध करने के अभिप्राय से उन शिथिलाचारपरायण कतिपय श्रमणों ने चैत्यवासी नाम की एक नई परम्परा को जन्म दिया । उन्होंने, जिन विधि-विधानों एवं मान्यताओं का मूल जैनागमों में कहीं कोई नाम मात्र तक के लिये भी उल्लेख नहीं है, ऐसे अनेक प्रकार के नये-नये धार्मिक अभिनव क्रिया-काण्डों एवं अनुष्ठानों के सूत्रपात के साथ-साथ एकादशांगी आदि जैन वांग्मय से नितान्त प्रतिकूल प्रतिष्ठा-कल्पों एवं लगभग ३६ निगमोपनिषदों आदि नूतन धर्मग्रन्थों की रचना कर उन्हें जैन धर्मावलम्बियों में परम प्रामाणिक एवं लोकप्रिय बनाने का प्रबल प्रयास किया । चैत्यवासी परम्परा के आचार्यों तथा विद्वानों को उस प्रयास में आशातीत सफलता प्राप्त हुई और इस प्रकार वीर निर्वारण की ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथमार्द्ध में ही चैत्यवासी परम्परा एक शक्तिशाली सुसंगठित धार्मिक संगठन के रूप में उभरी, विस्तीर्ण भूखण्ड में प्रसृत हुई और चारों ओर उसका वर्चस्व स्थापित हो गया । कालान्तर में चैत्यवासी परम्परा के एक प्रभावशाली आचार्य श्री शीलगुण सूरि के उपकारों से उपकृत वनराज चावड़ा ने विशाल गुर्जर राज्य की स्थापना के साथ ही शीलगुण सूरि को राजगुरु के पद से अलंकृत कर उनके निर्देशानुसार अपने विशाल राज्य में राजाज्ञा प्रसारित करवा दी कि चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्य की अनुमति के बिना चैत्यवासी परम्परा से भिन्न किसी भी अन्य जैन परम्परा का श्रमण श्रमणी वर्ग गुर्जर राज्य में न केवल विवरण ही अपितु प्रवेश तक भी नहीं कर सकता । वनराज चावड़ा के राज्यारोहण काल विक्रम सम्वत् ८०२ से लेकर चालुक्यराज गुर्जरेश्वर दुर्लभराज के शासनकाल विक्रम सम्वत् १०७६/८० पर्यन्त लगभग पौने तीन शताब्दी तक इस राजाज्ञा का कड़ाई से पालन किया जाता रहा । चैत्यवासी परम्परा के इस प्रकार के द्रुतगामी प्रचार- प्रसार, वर्चस्व, एकाधिकार एवं राज्यानुग्रह के परिणामस्वरूप श्रमरण - श्रमरणी वर्ग में शिथिलाचार, एवं श्रावकश्राविका वर्ग में भावार्चन अथवा आध्यात्मिकता के स्थान पर भौतिक कर्म-काण्डों एवं बाह्याडम्बरों के रूप में द्रव्यार्चन का बोलबाला हो गया । चैत्यवासियों के इस प्रकार के स्पृहणीय उत्कर्ष से प्राकर्षित हो भारत के अन्यान्य प्रदेशों में भी अनेक प्रकार की द्रव्य परम्पराओं का अद्भुत प्रचार-प्रसार और वर्चस्व स्थापित हुआ । इस प्रकार सम्पूर्ण आर्यधरा पर चैत्यवासी, भट्टारक, श्रीपूज्य, यति एवं यापनीय आदि द्रव्य परम्पराओं का वर्चस्व स्थापित हो गया । इन द्रव्य परम्परानों के प्राडम्बरपूर्ण, आकर्षक भौतिक प्रयोजनों से न केवल जैनों का ही, अपितु जैनों तक का जनमत इन द्रव्य परम्परायों की ओर ग्राकर्षित होता गया । इस सब का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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