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________________ पूर्व पीठिका | सम्वत् १५५० तदनुसार विक्रम सम्वत् १०८० तक के जैन जगत् में चारों ओर चैत्यवासी, यापनीय, भट्टारक, श्रीपूज्य, यति एवं शिथिलाचार में श्रापाद कण्ठ निमग्न सुविहित नामधारी परम्पराम्रों के वर्चस्व को देखकर हमारी यह निश्चित धारणा बन गई कि श्रमण भगवान् महावीर की विशुद्ध मूल श्रमरण परम्परा, जो, श्रार्य महागिरि के स्वर्गारोहण (वीर निर्वारण सम्वत् २४५ ) के अनन्तर वाचनाचार्य गरणाचार्य और युग प्रधानाचार्य इन तीनों परम्पराम्रों के नाम से समानान्तर रूप से वीर निर्वारण सम्वत् १००० तक चली आ रही थी, वह, १००१ के पश्चात् इन देशव्यापी द्रव्य परम्पराओं के प्रसार, प्रचार एवं वर्चस्व के परिणामस्वरूप नितान्त गौण रूप में अवशिष्ट रह गई । विशुद्ध मूल परम्परा की ये तीनों प्राचार्य परम्पराएँ उस संक्रान्ति काल में विलुप्त तो नहीं हुई, किन्तु महातोया महानदी के श्रन्तर्प्रवाह के रूप में इस परम्परा का क्षीण प्रवाह प्रबाध गति से निरन्तर चलता ही रहा । नितान्त गौरण अवस्था में पहुंची हुई विशुद्ध मूल परम्परा के प्राचार्यों की पट्टावलियां कहीं उपासकों के प्रभाव में, तो कहीं सम्भवतः द्रव्य परम्पराओं के वर्चस्व, एकाधिपत्य अथवा कुचक्र के प्रभाव से निरवशेष अथवा विलुप्त ही हो गईं अथवा नष्ट कर दी गईं । [ ११ हमारी इस प्रकार की धारणा की सम्पुष्टि न केवल निर्वाणोत्तर जैन air से ही पितु श्रागमिक उल्लेखों से भी होती है । प्रागमिक उल्लेख के अनुसार अनन्त उत्सर्पिरणी व प्रवसर्पिणी कालचक्रों के व्यतीत हो जाने के अनन्तर पांच भरत तथा पांच एरवत- इन दस क्षेत्रों में समान रूप से एक हुण्डावसर्पिणी काल श्राता है । हुण्ड का अर्थ है - होन, बुरा अथवा विषम और अवसर्पिणी काल का अर्थ है - उत्तरोत्तर हीयमान काल, जिसमें पुद्गलों के वर्ण, गंध एवं रस, स्पर्श आदि गुरणों का अनुक्रम से अपकर्ष अथवा ह्रास होता रहता है । इसी प्रकार के हुण्डावसर्पिणी काल में समय-समय पर अनेक बार धर्म की ग्लानि-हानि एवं अधर्म का अभ्युत्थान होते रहने के साथ-साथ अघटनीय घटनाओं के घटित होते रहने के रूप में दस प्रकार के प्राश्चर्यों का प्रादुर्भाव होता है, जैसाकि अनन्त अवर्सापरिगयों में और किसी एक भी उत्सर्पिणीकाल में कभी नहीं होता । Jain Education International जिस श्रवसर्पिणी काल में हम उत्पन्न हुए हैं उस प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल को शास्त्रों में, श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के साहित्य में हुंडावसर्पिणी काल की संज्ञा से अभिहित किया गया है । प्रवर्त्तमान हुंडावसर्पिणी काल में धर्म के विच्छेद- ह्रास के साथ साथ कब कब अधर्म का अभ्युत्थान हुआ और 'दस प्रकार की कौन-कौन सी आश्चर्यकारी घटनाएं कब-कब घटित हुईं, इस सम्बन्ध में यहां चर्चा करना अभीष्ट नहीं है, क्योंकि जैन वांग्मय में एतद् विषयक विशद् विवरण उपलब्ध है ।" १. जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग १ (प्रथम संस्करण) पृ० ३४४-४६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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