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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
का अन्त हो जाने की स्थिति में उसी परम्परा की अग्रेतन पट्टावली का अस्तित्व भी कैसे रह सकता है। इस विचार से मन में वाचनाचार्य परम्परा की देवद्धि से आगे की वाचनाचार्य परम्परा की पट्टावली न मिलने से जो एक कसक, चुभन अथवा टीस अनुभव की जा रही थी, वह कुछ सीमा तक शान्त हुई। किन्तु हठात् एक-दूसरे ऐतिहासिक महत्त्व के प्रश्न ने अन्तर्मन में एक दूसरी ही टीस उत्पन्न कर दी कि देवद्धि गरिण क्षमाश्रमण का वह शिष्य कौन था जो देवद्धि के स्वर्गगमन के पश्चात् उनके पद पर आसीन हुा । लम्बे समय तक अथक प्रयास के साथ उपलब्ध जैन वांग्मय का पालोडन, विलोडन, निदिध्यासन करने के उपरान्त भी देवद्धि गणि क्षमाश्रमण के किसी एक भी शिष्य का नाम उनके उत्तराधिकारी के रूप में तत्कालीन जैन साहित्य और उसके उत्तरवर्ती समय के साहित्य में उपलब्ध नहीं हुप्रा । "देवद्धिगरिण क्षमाश्रमरण जैसे महान् प्रभावक और पूर्वधर वाचनाचार्य, जिन्होंने न केवल एकादशांगी को ही अपितु उपांग छेदसूत्र आदि सम्पूर्ण आगमों को लिपिबद्ध अथवा पुस्तकारूढ़ कर सुविशाल शिष्योपशिष्य सन्तति की सहायता से ही पूर्ण किये जाने योग्य अतीव श्रम एवं समय साध्य गुरुतर कार्य को अपने भागीरथ प्रयास से सम्पन्न किया, वे शिष्य सन्तति विहीन होंगे और उनके स्वर्गारोहण के अनन्तर उनके पट्ट को अलंकृत करने वाला कोई भी सुयोग्य शिष्य अवशिष्ट न रहा होगा" यह बात किसी भी विचारक के गले नहीं उतर सकती। वीर निर्वाण की एक सहस्राब्दि के अवसान के साथ ही तत्काल श्रमण भगवान महावीर की विशुद्ध मूल श्रमण परम्परा, वाचनाचार्य-परम्परा एक ही क्षण में तिरोहित हो गई होगी इस प्रकार की कल्पना नहीं की जा सकती। दुषमाकाल के अवसान के अन्तिम दिन में स्वर्ग सिधारने वाले दुःप्रसह प्राचार्य की विद्यमानता तक श्रमण भगवान् महावीर के जिनशासन का प्रवाह कभी तीव्र तो कभी मन्द गति से चलेगा पर चलता अवश्य रहेगा। किसी भी समय विच्छिन्न नहीं होगा। इस अवितथ पागम वचन के अनुसार यह तो किसी भी दशा में विश्वास नहीं किया जा सकता कि देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहण के पश्चात् श्रमरण भगवान् महावीर का शासन कुछ समय के लिए विलुप्त अथवा तिरोहित हो गया होगा । देवद्धिगरिण के पश्चात् भी जिनशासन का प्रवाह किसी न किसी रूप में अवश्यमेव चलता रहा, इस अटूट आस्था एवं अडिग विश्वास के साथ जब देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहण के उत्तरवर्ती काल के जैनवांग्मय का पुनः पुन: परिमन्थन किया गया तो चारों ओर जैन वांग्मय में श्रमण भगवान् महावीर की अध्यात्मपरक मूल विशुद्ध भाव परम्परा के स्थान पर द्रव्य परम्पराओं का ही इतस्ततः वर्चस्व दृष्टिगोचर हुअा और वीर निर्वाण सम्वत् १००० से वीर नि० सं० १५५० (विक्रम सम्वत् १०८०) तक के जैन वांग्मय में विशुद्ध मूल परम्परा के क्रमबद्ध पट्टक्रम का कहीं नामोल्लेख तक दृष्टिगोचर नहीं हुआ।
__ इस प्रकार जैन वांग्मय के पुनः पुनः पालोडन-विलोडन के पश्चात् देवद्धिगरिण के स्वर्गारोहण के अनन्तर वीर निर्वाण सम्वत् १००० से वीर निर्वाण
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