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पूर्व पीठिका 1
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आलेख्यमान ग्रन्थमाला के द्वितीय भाग के प्रालेखनानन्तर इसके प्रकाशन के साथ ही तृतीय भाग के श्रालेखन का कार्य हाथ में लेने का उपक्रम किया गया । क्योंकि वीर निर्वारण सम्वत् १ से १००० वर्ष तक के जैन धर्म के इतिहास का प्रालेखन वाचनाचार्य परम्परा की नन्दी स्थविरावली को प्रमुख आधार मानकर किया गया था, अत: सबसे पहले देवद्धि क्षमाश्रमरण के उत्तरवर्ती काल की वाचनाचार्य परम्परा की पट्टावली की खोज की गई । युग प्रधानाचार्य प्रादि अनेक परम्पराओं की पट्टावलियों के साहित्य का पुनः पुनः आलोडन विलोडन कर लेने के पश्चात् भी जब वाचनाचार्य परम्परा की देवद्धि क्षमाश्रमण के आगे की पट्टावली कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुई तो एक बड़ी भारी निराशा के साथ-साथ एक बड़ी असमंजसपूर्ण उलझन हृदय को कचोटने लगी कि दो सहस्राब्दियों पूर्व उट्टं कित किये गये शिलालेखों से परिपुष्ट नन्दी स्थविरावली में वीर निर्वारण सम्वत् १ से १००० तक उल्लिखित की गई वाचनाचार्य परम्परा की अग्रेतन पट्टावली के प्रभाव में प्रामाणिक इतिहास-लेखन कार्य यथातथ्य रूपेरण किस प्रकार आगे बढ़ाया जा सकेगा । ऐसे निराशा के क्षणों में एक नवीन प्राशा अन्तर्मन में उद्भूत हुई कि भारत के प्रमुख ग्रन्थागारों, प्राचीन हस्तलिखित ज्ञान भण्डारों का सूक्ष्म दृष्टि से यदि अवलोकन किया जाय तो सम्भव है कि वाचनाचार्य परम्परा की पट्टावली का कहीं कोई थोड़ा बहुत स्रोत मिल जाय । इस प्राशा की अनुपूर्ति हेतु अनेक प्राचीन ग्रन्थागारों एवं हस्तलिखित ग्रन्थों के ज्ञान भण्डारों में खोज प्रारम्भ की गई । इस खोज के साथसाथ वीर निर्वाण सम्वत् १००१ से २००० और उससे आगे के इतिहास के प्रालेखन के लिये आवश्यक सामग्री का श्रालेखन संकलन भी प्रारम्भ रखा गया । इस लम्बे समय के प्रयास में जैन वाङ्गमय के प्रालोडन में अनेक प्रकार की द्रव्य परम्पराओं की पट्टावलियां और उन द्रव्य परम्परानों के सम्बन्ध में ऐतिहासिक सामग्री तो विपुल मात्रा में प्राप्त हुई किन्तु अहर्निश प्रथक् प्रयास के उपरान्त भी वाचनाचार्य परम्परा की देवद्धि क्षमाश्रमरण के स्वर्गारोहण के पश्चात् की कोई पट्टावली उपलब्ध नहीं हुई ।
'वाचको पूर्व विद्' प्रथवा 'पूर्वविद् वाचक:' अर्थात् जो पूर्वज्ञान से सम्पन्न हो उसी को वाचक या वाचनाचार्य कहा जा सकता है। कम से कम एक पूर्व का ज्ञान वाचनाचार्य के लिए होना अनिवार्य रूपेण श्रावश्यक है । जिसे एक पूर्व का भी ज्ञान नहीं है वह वाचनाचार्य की अभिधा से अभिहित नहीं किया जा सकता । वत्तियों और प्राचीन जैन वांग्मय में वाचक अथवा वाचनाचार्य की इस व्याख्या को पढ़कर मस्तिष्क में एक विचार प्राया कि अन्तिम पूर्वधर वाचनाचार्य श्रार्य देवगिरिण क्षमाश्रमरण के स्वर्गस्थ हो जाने के अनन्तर पूर्व ज्ञान हमारी श्रार्य धरा से लुप्त हो गया । पूर्व ज्ञान के लुप्त होने के साथ ही वाचक संज्ञा से अभिहित किये जाने योग्य किसी भी वाचनाचार्य के विद्यमान न रहने के कारण वीर निर्वाण सम्वत् १००१ में वाचनाचार्य परम्परा भी समाप्त हो गई । वाचनाचार्य परम्परा
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