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________________ २२] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ वैशेषिक, प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रागम इन तीन प्रमाणों को मानने वाले त्रिमा अर्थात् सांख्य, प्रत्यक्ष, अनुमान, श्रागम और उपमान इन चार प्रमारणों को मानने वाले चतुर्मा अर्थात् नैयायिक, प्रत्यक्ष, अनुमान, श्रागम, उपमान और प्रर्थापत्ति इन पांच प्रमारणों को मानने वाले प्रभाकरमतावलम्बी और प्रत्यक्ष, अनुमान, श्रागम, उपमान, अर्थापत्ति और प्रभाव इन ६ प्रकार के प्रमाणों को मानने वाले षण्मा - अर्थात् मीमांसक --- इन छहों मतावलम्बियों के दर्शनों में निष्णात “एकद्वित्रिचतुः पंचषण्मेनकमने मयि” मुझ देवबोध के क्रुद्ध हो जाने पर "न का : " मेरे समक्ष वादी के रूप में नहीं ठहर सकते। साथ ही " मेनकमनेना" अर्थात् मा-लक्ष्मी उसका इन अर्थात् स्वामी मेन - विष्णु, कमनः ब्रह्मा और इन् अर्थात् सू आदित्य (सूर्य) ये तीनों सबसे बड़े देव भी देवों को बोध- ज्ञान देने वाले मुझ देवबोध के समक्ष नहीं टिक सकते । क्योंकि देवबोध नाम होने के कारण मैं देवों का बोधक गुरु हूं और ये देव मेरे शिष्य । इस प्रकार मेरे समक्ष किसी मानव की तो गणना ही क्या देवों के स्वामी विष्णु, ब्रह्मा और सूर्य तक नहीं ठहर सकते । पण्डित देवबोध को विश्वास था कि उसके इस श्लोक का कोई भी विद्वान् अर्थ नहीं बता सकेगा । देवसूरि द्वारा अपने अन्तर्मन की भावना के अनुरूप किये गये इस श्लोक के अर्थ को पढ़कर विद्वान् देवबोध बड़ा ही चमत्कृत हुआ । उसका गर्व गल गया और उसने देवसूरि को तत्काल अपने पूज्य के रूप में स्वीकार कर उन्हें प्रणाम किया । राजाधिराज सिद्धराज जयसिंह के हर्ष का तो पारावार न रहा । वह देवसूरि के प्रगल्भ प्रकाण्ड पाण्डित्य से इतना अधिक प्रभावित हुआ कि जीवन भर वह उनके प्रति गहरा सम्मान प्रकट करता रहा । इस प्रकार देवसूरि की मूर्धन्य विद्वानों में गणना की जाने लगी । देवसूरि लगभग पांच मास तक अपने गुरु की सेवा में रहे और उन्होंने उनकी बड़ी ही श्रद्धा-भक्ति एवं निष्ठापूर्वक सेवा की। श्री मुनिचन्द्रसूरि ने अपना अन्तिम समय सन्निकट समझ कर संलेखना - संथारा अनशन कर विक्रम संवत् ११७८ में समाधिपूर्वक स्वर्गारोहण किया । अपने गुरु के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर भी देवसूरि को लगभग ६ मास तक पारण में ही रुकना पड़ा, क्योंकि उनकी प्रेरणा से अतुल धन के धनी धर्मनिष्ठ श्रेष्ठि थाहड़ द्वारा प्रारम्भ किया गया भगवान् महावीर के मन्दिर के निर्माण का कार्य तब तक निर्माणाधीन था । निर्माण कार्य पूर्ण हो जाने पर श्रेष्ठिवर थाहड़ ने उस मन्दिर की प्रतिष्ठा देवसूरि के करकमलों से करवाई । इस प्रकार कुल मिलाकर एक वर्ष तक पाटण में रहने के अनन्तर देवसूरि ने नागपुर की ओर विहार किया । नागपुर पहुंचने पर महाराजा ग्राह्लादन ने देवसूरि के समक्ष उपस्थित हो उनकी अगवानी करते हुए उन्हें वन्दन नमन किया । उस समय भागवत विद्वान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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