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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] वादिदेवसूरि [ २६१ जायें, क्योंकि उनके गुरु श्री मुनिचन्द्रसूरि का आयुष्य केवल ६ मास का ही अवशिष्ट रह गया है । इस प्रकार के भावी का बोध होते ही देवसूरि ने बाबू से मनहिलपुर पत्तन की ओर विहार किया और अप्रतिहत विहारक्रम से वे पत्तन पहुंचकर गुरु की सेवा में रत हो गये। जिस समय देवसूरि धोलका और अर्बुदाचल आदि क्षेत्रों में विचरण कर रहे थे, उन दिनों देवबोध नामक एक महावादी पत्तन में पाया। बड़े-बड़े लब्धप्रतिष्ठ प्रतिवादियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर देने के कारण देवबोध के अन्तर्मन में अहंकार घर कर गया था कि उसके समक्ष न तो कोई वादनिष्णात प्रतिवादी ही खड़ा रह सकता है और न कोई उच्चकोटि का उद्भट विद्वशिरोमणि ही। उसने पत्तननगर के विद्वानों के पाण्डित्य को ललकारते हुए निम्नलिखित अति जटिल एक श्लोक पत्र पर लिख कर पत्तनाधीश चालुक्यराज सिद्धराज जयसिंह के राजद्वार पर चिपका दिया : एकद्वित्रिचतुः पंचषण्मेनकमने न काः । देवबोधे गयि क्रुद्ध षण् मेनकमनेनकाः ।। एक दूसरे से उच्च कोटि के अनेक दिग्गज विद्वानों ने उस श्लोक को पढ़ा और उसका शब्दार्थ करने का प्रयास किया। किन्तु एक जटिल समस्या के समान रहस्यपूर्ण उस श्लोक का अर्थ करने में कोई विद्वान् सफल नहीं हुआ। यह पाटन के प्रभुत्व की प्रतिष्ठा का प्रश्न था । महाराज सिद्धराज जयसिंह ने जब यह देखा कि लगभग ६ मास व्यतीत हो जाने पर भी देवबोध द्वारा राजद्वार पर चिपकाये गये इस गूढ़ रहस्यपूर्ण समस्यात्मक श्लोक का उनके राज्य के विद्वानों में से कोई भी समुचित अर्थ करने में सफल नहीं हो सका है तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई। अपने स्वामी की चिन्ता को देख कर महामात्य अम्बाप्रसाद ने उन्हें निवेदन किया-"स्वामिन् ! जैनाचार्य श्री देवसूरि वर्तमान युग के महामेधावी विद्वद्वरेण्य हैं । मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि उन्हें निवेदन किया जाय तो वे इस गूढ़ श्लोक की सुस्पष्ट रूप से व्याख्या कर देंगे। महाराज सिद्धराज जयसिंह ने देवसूरि से प्रार्थना की कि वे देवबोध द्वारा राजद्वार पर चिपकाये गये उस श्लोक की समुचित व्याख्या करने की कृपा करें। देवसूरि ने तत्काल उस श्लोक को पढ़ कर सिद्धराज जयसिंह के समक्ष उस श्लोक की निम्नलिखित रूप से व्याख्या करते हुए कहा :--"महाराज ! इस श्लोक के माध्यम से विद्वान् देवबोध विद्वन्मण्डली को ललकारते हुए गर्वपूर्वक अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन इस प्रकार कर रहा है : "एकमात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने वाले एक प्रमाणवादी चार्वाक, प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों को मानने वाले द्विमा अर्थात् बौद्ध और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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