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________________ २९० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ द्वैतवादी को, सत्यपुर में कश्मीरी महावादी सागर को, नागपुर में दिगम्बरवादी गुरणचन्द्र को, चित्रकूट में शिवभूति नामक भागवत मतावलम्बी को, गोपगिरि में गंगाधर नामक वादी को, धारानगरी में धरणीधर नामक वादी को, पुष्करिणी में ब्राह्मण विद्वान् पद्माकर को और भृगुकच्छ में कृष्ण नामक महावादी ब्राह्मण को शास्त्रार्थ में पराजित कर वादजयी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की। विमलचन्द्र, हरिचन्द्र, सोमचंद्र, पावचंद्र, प्रज्ञाधनी शान्ति और अशोकचन्द्र आदि अनेक उद्भट विद्वान् मुनि रामचन्द्र के अभिन्न मित्र बन गये। इस प्रकार मुनि रामचन्द्र की यशोपताका दिग्दिगन्त में लहराने लगी। अपने महायशस्वी विद्वान् मुनि रामचन्द्र को सभी भांति सुयोग्य समझकर प्राचार्य मुनिचन्द्रसूरि ने उन्हें विक्रम सम्वत् ११७४ (ग्यारह सौ चौहत्तर) में प्राचार्यपद प्रदान किया और प्राचार्यपद प्रदान करते समय उन्होंने पूर्णचन्द्र का नाम देवसूरि रखा । प्राचार्यपद प्रदान के प्रसंग पर श्री मुनिचन्द्रसूरि ने पूर्णचन्द्र के पिता श्री वीरनाग को पंच महाव्रतों की भागवती दीक्षा प्रदान की और पूर्व में ही दीक्षिता श्री पूर्णचन्द्र की मातेश्वरी साध्वीश्रेष्ठा जिनदेवी को महत्तरा पद प्रदान कर उनका नाम चन्दनबाला रखा । आचार्यपद पर अभिषिक्त किये जाने के अनन्तर अपने आराध्य गुरुदेव की आज्ञा से श्री देवसूरि ने घोलका आदि अनेक क्षेत्रों में विचरण कर जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा आदि के साथ-साथ उपदेशामृत से अनेक भव्यों को प्राप्यायित करते हुए जिनशासन का उल्लेखनीय प्रचार-प्रसार किया। तपश्चरण के साथसाथ अहर्निश आत्मचिन्तन में लीन रहने के परिणामस्वरूप प्राचार्य श्री देवसूरि को अनेक प्रकार की सिद्धियां स्वतः एवं अनायास ही उपलब्ध हो गईं और उनकी कीर्ति दिग्दिगन्त में व्याप्त हो गईं। ___ एक समय जब वे अर्बुदाचल पर आरोहण कर रहे थे, तब उनके साथ मन्त्री अम्बाप्रसाद भी था। पर्वत पर चढ़ते समय मन्त्री को एक विषधर ने डस लिया। साथ के स्वधर्मी बन्धुओं ने तत्काल देवसूरि के चरणोदक से मन्त्री के उस पैर के उस भाग को धो डाला, जिस भाग को सर्प ने डसा था । यह देखकर लोगों के आश्चर्य का पारावार नहीं रहा कि मन्त्री अम्बाप्रसाद के पैर पर सर्पदंश स्थल को श्री देवसूरि के चरणोदक से धोते ही भयंकर विषधर के विष का प्रभाव तत्काल पूर्णतः विलुप्त हो गया और मन्त्रीश्वर पूर्णतः स्वस्थ हो पहले की भांति अबुदाचल पर आरोहरण करने लगे। श्री देवसूरि ने कुछ समय तक आबू पर्वत पर रहकर सपादलक्ष (साम्भर) की ओर विहार करने का विचार किया। किन्तु उन्हें अदृष्ट शक्ति से प्रेरणा मिली कि वे सांभर की ओर विहार न कर यथाशक्य शीघ्र ही अपहिलपुरपत्तन पहुंच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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