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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] वादिदेवसूरि - [ २८९ गया और गृहस्वामी उन टोकरियों में रखी स्वर्णमुद्राओं को अपने कोषागार में रखता गया। देखते ही देखते उसका पूरा कोषागार स्वर्णमुद्राओं से ठसाठस भर गया । उस श्रेष्ठी ने बालक पूर्णचन्द्र से विक्रय हेतु लाये गये भिष्टान्न की खरीदकर उसके मूल्य के रूप में उसे कुछ स्वर्ण मुद्राएं प्रदान कर दीं। प्रमुदित हो बालक अपने पिता के पास पहुँचा और वह धन अपने पिता को समर्पित करते हुए उन्हें उसने पूरा वृत्तान्त सुना दिया। इस घटना से वीरनाग को भी वड़ा आश्चर्य हुआ और उसने अपने धर्म गुरु मुनिचन्द्रसूरि को उस घटना का विवरण सुना दिया। ___ इस वृत्तान्त को सुनकर मुनिचन्द्रसूरि ने मन हो मन विचार किया"वस्तुतः यह बालक कोई भावी महान् पुरुषोत्तम है। कुछ समय तक बालक के सम्बन्ध में मन ही मन चिन्तन करने के अनन्तर मुनि चन्द्रसूरि ने वीरनाग से उस होनहार बालक पूर्णचन्द्र की याचना की। वीरनाग ने अति विनम्र स्वर में अपने गुरु के समक्ष अपने मनोभाव प्रकट करते हुए कहा-"भगवन् ! हम तो वंशपरम्परा से आप ही के चरण सेवक हैं। किन्तु यह मेरा एक मात्र पुत्र है और हमारा यही एक मात्र जीवन का सहारा है । अब न तो मैं ही किसी प्रकार के व्यवसाय के माध्यम से जीविकोपार्जन में सक्षम हं और न पूर्णचन्द्र की माता ही। इसके उपरान्त भी यदि गुरुदेव इस बालक को अपनी चरण शरण में लेना ही चाहते हैं तो मैं आपकी आज्ञा को सहर्ष शिरोधार्य करता हूं। आप इसे ले लीजिये।" वीरनाग की इस प्रकार की अपूर्व त्यागपूर्ण उदारता से द्रवित हो मुनि चन्द्रसूरि ने कहा-"श्रावकोत्तम ! मेरे जो ये पांच सौ शिष्य हैं, वे सब आज से तुम्हारे ही पुत्र हैं। इसके साथ ही साथ जितने भी मेरे उपासक तुम्हारे ये सधर्मी बन्धु हैं वे सब तुम्हारी जीवनपर्यन्त अन्तर्मन से सेवा सुश्रूषा करेंगे। अब तुम तो सब प्रकार की चिन्ता छोड़कर परलोक के पाथेय एक मात्र धर्माराधन का अवलम्बन लो।" इसी प्रकार प्राचार्य मुनिचन्द्र ने पूर्णचन्द्र की माता जिनदेवी को भी सहमत कर लिया और उन्होंने विक्रम सम्वत् ११५२ (ग्यारह सौ बावन) में पूर्णचन्द्र को श्रमण धर्म की दीक्षा प्रदान कर अपना शिष्य बना लिया। दीक्षा प्रदान करते समय आचार्यश्री ने पूर्णचन्द्र का नाम रामचन्द्र रखा । दीक्षित होने के अनन्तर मुनि रामचन्द्र ने तर्क शास्त्र, लक्षण शास्त्र, व्याकरण, साहित्य, न्याय, दर्शन एवं आगम शास्त्रों में क्रमशः पारीणता प्राप्त की। जैन-दर्शन के अतिरिक्त बौद्ध, बैशेषिक, सांख्य आदि सभी दर्शनों का भी तलस्पर्शी अध्ययन कर रामचन्द्र अपने समय के वादियों में विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न वादी के रूप में प्रसिद्ध हुए । महावादीभ मुनि रामचन्द्र ने घोलका नगर में धन्ध नामक शिवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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