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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] वादिदेवसूर [ २९३ देवबोध भी महाराजा आह्लादन के साथ था । अपने धर्मगुरु के दर्शनार्थं वहां उपस्थित हुए विशाल जनसमूह के समक्ष विद्वान् देवबोध ने देवसूरि की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हुए निम्नलिखित आर्या का सस्वर पाठ किया : यो वादिनो द्विजिह्वान्, साटोपं विषममानमुद्गिरतः । शमयति स देवसूरिर्नरेन्द्रवन्द्यः कथं न स्यात् ॥७६॥ अर्थात्–फुत्कार के साथ फरण उठा कर विष का वमन करने वाले दो जिह्वा वाले विषधर सर्पों के समान बड़े आडम्बर के साथ प्रगाढ़ अभिमान प्रकट करने वाले वाक्शूर वादियों के विष तुल्य दुखदायी गर्व का शमन कर देने वाले ये देवसूरि नरेश्वरों द्वारा वन्दनीय क्यों नहीं होंगे ? अवश्यमेव वन्दनीय होंगे । महाराजा आह्लादन ने प्रगाढ़ भक्ति प्रकट करते हुए आचार्य श्री देवसूरि का बड़े ठाट-बाट से नगर प्रवेश करवाया । तत्वदर्शी आचार्य देवसूरि भव्य जनों को उपदेश देकर स्व तथा पर का कल्याण करने वाले धर्म के पथ पर उन्हें प्रारूढ़ और उत्तरोत्तर अग्रसर करने लगे । जिस समय देवसूरि नागपुर नगर में विराजमान थे, उसी समय पत्तनाधीश सिद्धराज जयसिंह ने अपनी विशाल चतुरंगिणी सेना ले नगर को चारों ओर से घेर लिया किन्तु ज्योंही सिद्धराज जयसिंह को ज्ञात हुआ कि प्राचार्य श्री देवसूरि नागपुर नगर में विद्यमान हैं, तो उसने तत्काल नगर का घेरा उठा अपनी विशाल वाहिनी के साथ पुनः अपनी राजधानी पत्तन की ओर प्रयाण कर दिया । अपने सम्मानास्पद मित्र श्री देवसूरि जब तक नागपुर नगर में रहे, तब तक बलपूर्वक उस दुर्ग पर आक्रमण नहीं किया जा सकता, इस प्रकार विचार कर महाराजा जयसिंह ने अपने विश्वस्त पौर जनों को देवसूरि की सेवा में भेज बड़ी भक्तिभरी प्रार्थना कर उन्हें पुनः अनहिलपुरपत्तन में बुला लिया और उन्हें चातुर्मासावास भी वहीं करवाया । जिस समय देवसूरि पत्तन में वर्षावास व्यतीत कर रहे थे, उस समय आश्विन मास में सिद्धराज जयसिंह ने अपनी सेना के साथ नागपुर पर आक्रमण किया और स्वल्प समय में ही दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया । इस घटना से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जैनाचार्य श्री देवसूरि के प्रति चालुक्यराज सिद्धराज जयसिंह के अन्तर्मन में कितनी प्रगाढ़ श्रद्धा भक्ति थी कि एक बड़े ही महत्त्वपूर्ण सैनिक अभियान में विपुल अर्थ और समय का व्यय कर नागपुर के चारों ओर घेरा डालने के उपरान्त भी जब सिद्धराज जयसिंह को यह विदित हुआ कि देवसूरि नगर में ही विराजमान हैं तो वह तत्काल घेरा हटा अपने नगर को लौट गया । जब तक देवसूरि नागपुर में रहे, उसने नागपुर पर आक्रमण नहीं किया और अन्ततोगत्वा उन्हें पत्तन में चातुर्मासावास करवाने के अनन्तर ही नागपुर पर आक्रमण और अधिकार किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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